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निकलते अब पहाड़ों के सुरों से दर्द के नाले (ग़ज़ल 'राज'

१२२२   १२२२   १२२२   १२२२

कहीं मलबा कहीं पत्थर कहीं मकड़ी के हैं जाले

कहानी गाँव  की कहते घरों के आज ये ताले  

 

किया बर्बाद मौसम ने छुड़ाया गाँव घर आँगन

यहाँ दिन रात रिसते हैं दिलों में गम के ये छाले

 

भटकते शह्र में फिरते मिले दो वक्त की रोटी

सिसकते गाँव के चूल्हे तड़पते दीप के आले*

 

कहाँ संगीत झरनों के परिंदों की कहाँ चहकन 

निकलते अब  पहाड़ों के सुरों से  दर्द के नाले

 

लुटा सुख चैन सब अपना कहें किससे कहाँ जाएं 

उधर वो  चीखते पर्वत इधर चुप ये जहाँ  वाले

 

 कहीं सौगात खुशियों की मिले उनसे किसानों को 

 सहम जाते पहाड़ों पर घिरें बादल जहाँ काले

 

फकत  मजबूरियाँ अपनी कलेजों पर धरे पत्थर

उसी को छोड़ना पड़ता हमें जिस गोद ने पाले

आले*=दीपक रखने का स्थान ,नाले=आहें ,पाले=पालन पोषण किया 

----मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 9, 2017 at 6:21pm
आ. राजेश दी सादर अभिवादन। लाजवाब गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
Comment by Ravi Shukla on July 9, 2017 at 2:21pm
आदरणीया राजेश दीदी बहुत अच्छी गजल कही आपने इसके लिए दिली मुबारकबाद पेश है मतले के सानी मिसरे में गांव के ताले अगर तालाब से इसका आशय है तो यहाँ और बेहतर शब्द हो सकता है इसी तरह आख़िरी शेर में भी काफिया और उपयुक्त आप ले सकती हैं ।वाक्य विन्यास के अनुसार हमें ऐसा लगा। सादर ग़ज़ल के लिए फिर से बधाई
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 8, 2017 at 11:19pm
वाह वाह आदरणीया बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई..मतले सहित हर एक शे'र बेमिसाल..सादर

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