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सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में (ग़ज़ल 'राज')

1212  1212  1212  1212

फँसा रहे बशर सदा गुनाह ओ सवाब में

हयात झूलती सदा सराब में हुबाब में

 

बची हुई अभी तलक महक किसी गुलाब में

बता रही हैं अस्थियाँ छुपी हुई किताब में

 

जहाँ जुदा हुए कभी रुके  वहीं सवाल हैं

गुजर गई है जिन्दगी लिखूँ मैं क्या जबाब में

 

लिखें जो ताब पर ग़ज़ल सुखनवरों की बात अलग

वगरना लोग देखते हैं आग आफ़ताब में

 

फ़िज़ूल में ही अब्र ये छुपा रहा है चाँद को

जमाल हुस्न का कभी न छुप सका हिजाब में

 

नजर लगे न मनचलों की गुलसिताँ में सोचकर

सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में 

 

उसूल  क्या है जाम का या मयकदों की शाम का

उदास हों या खुश सदा ही डूबते शराब में

--------  मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by rajesh kumari on January 31, 2017 at 4:31pm

आद० विजय निकोर जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन सफल हो गया बहुत बहुत शुक्रिया .

Comment by vijay nikore on January 30, 2017 at 6:50pm

बहुत ही खूबसूरत गज़ल लिखी है। शेर दर शेर बधाई, आदरणीया राजेश जी


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Comment by rajesh kumari on January 25, 2017 at 8:54pm

आद० डॉ० आशुतोष मिश्राजी ,आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर मुग्ध हूँ मेरा रचनाकर्म सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभार आपका सादर .  


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Comment by rajesh kumari on January 25, 2017 at 8:52pm

आद० सुशील सरना जी ,आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ मेरी ग़ज़ल सार्थक हो गई आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया सादर .


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Comment by rajesh kumari on January 25, 2017 at 7:58pm

आद० बृजेश  कुमार बृज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया| .


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Comment by rajesh kumari on January 25, 2017 at 7:56pm

आद० मिथिलेश भैया ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत और समीक्षा से अभिभूत हूँ मेरी ग़ज़ल धन्य हुई आपकी इस्स्लाह काबिले गौर है औ लिखते लिखते न जाने ओ कैसे लिख गई ध्यान दिलाने का बहुत बहुत शुक्रिया |

Comment by Sushil Sarna on January 25, 2017 at 7:20pm

बची हुई अभी तलक महक किसी गुलाब में
बता रही हैं अस्थियाँ छुपी हुई किताब में

गज़ब आदरणीया राजेश कुमारी जी गज़ब ... कितने गहन भाव के अशआर लिखे हैं आपने। नमन आपकी लेखनी को। खूबसूरत से इन अहसासों से सजी ग़ज़ल को पेश करने की हार्दिक बधाई।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 25, 2017 at 7:13pm
सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में ...लाजबाब...बधाइयाँ

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 6:33pm

आदरणीया राजेश दीदी, बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद हाज़िर है-

फँसा रहे बशर सदा गुनाह ओ सवाब में
हयात झूलती सदा सराब में हुबाब में..............गुनाह-ओ-सवाब का वज्न गुनाहो-सवाब अनुसार 121-121 अथवा मात्रा उठा कर 122-121 हो सकते है परन्तु क्या गुनाह-121 ओ-1 सवाब-121 और गुनाह-121 ओ-2 सवाब-121 हो सकते हैं?
मुझे लगता है दीदी 'ओ' को 'में' 'औ' अथवा 'या' किया जाना उचित होगा.

बची हुई अभी तलक महक किसी गुलाब में
बता रही हैं अस्थियाँ छुपी हुई किताब में.............. बहुत शानदार शेर हुआ है दीदी. वाह ....एक निवेदन - गुलाब में या गुलाब की? यद्यपि यह हुस्ने-मतला है इसलिए ठीक है.

जहाँ जुदा हुए कभी रुके वहीं सवाल हैं
गुजर गई है जिन्दगी लिखूँ मैं क्या जवाब में.............. बहुत खूब

लिखें जो ताब पर ग़ज़ल सुखनवरों की बात अलग
वगरना लोग देखते हैं आग आफ़ताब में......................वाह वाह बहुत शानदार शेर ..... हासिल-ए-ग़ज़ल ..... (अलिफ़-वस्ल का जबरदस्त प्रयोग)

फ़िज़ूल में ही अब्र ये छुपा रहा है चाँद को
जमाल हुस्न का कभी न छुप सका हिजाब में.............. वाह वाह बहुत खूब .... भले ही कथ्य वही है किन्तु कहन मुग्ध कर रही है.

नजर लगे न मनचलों की गुलसिताँ में सोचकर
सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में ........................ वाह वाह

उसूल क्या है जाम का या मयकदों की शाम का
उदास हों या खुश, सदा ही डूबते शराब में...................... सही कहा ..... शेर अपने शाब्दिक अर्थ से विस्तार पाता है तो मानव की प्रकृति विशेष पर तीखा कटाक्ष विचार करने पर मजबूर कर देता है.

इस शानदार ग़ज़ल पर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर


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Comment by rajesh kumari on January 25, 2017 at 5:58pm

आद० समर भाई जी, ग़ज़ल पर आपकी मुहर लग गई तो आश्वस्त हुई आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया . 

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