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इंतज़ार ...

छोड़िये साहिब !
ये तो बेवक़्त
बेवज़ह ही
ज़मीं खराब करते हैं
आप अपनी उँगली के पोर
इनसे क्यूं खराब करते हैं
ज़माने के दर्द हैं
ज़माने की सौगातें हैं
क्योँ अपनी रातें
हमारी तन्हाईयों पे
खराब करते हैं
ज़माने की निगाह में
ये
नमकीन पानी के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
रात की कहानी
ये भोर में गुनगुनायेंगे
आंसू हैं,निर्बल हैं
कुछ दूर तक
आरिजों पे फिसलकर
खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे
हमारे दर्द हैं
हमें ही उठा लेने दीजिये
आप आये हैं
तो महफ़िल में
तबले की थाप पे
घुंघरू की आवाज़ का
मज़ा लीजिये
साजिंदों के साज पे
तड़पते नग्मों का
साथ दीजिये
शुक्र है इन घुंघरुओं का
जो अपनी झंकार में
पाँव के दर्द को
पी जाते हैं
इनकी आवाज के भरोसे
हम कुछ लम्हे
और जी जाते हैं
अपने कद्रदानों की
हर वाह पे
हम जाँ निसार करते हैं
जानते हैं
फरेब है
ये शब् भर की महफ़िल
फिर भी
ये कम्बख्त घुंघरू
इक
नई फरेबी रात का
बेसब्री से
इंतज़ार करते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on January 19, 2017 at 1:50pm

आदरणीया  राजेश कुमारी जी प्रस्तुति में निहित वेदना को महसूस कर अपने मधुर शब्दों से रचना को अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 

Comment by narendrasinh chauhan on January 19, 2017 at 11:30am

खूब सुंदर रचना 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 18, 2017 at 10:52pm

ओह्ह्ह क्या रचना है एक चित्र सा जीवंत हो गया नाचने वाली की अंतर्वेदना को बखूबी शब्दों में ढाला है बहुत खूब बहुत बहुत बधाई आद० सुशील सरना जी .

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