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कल की ही तो बात थी

अभी कल की  ही  तो बात  रही 

दो चार ही पल छीन पाए  
इक उगती  शाम  की  झोली से 
फिर न चाँद ऊगा न  सितारे ढल  पाए 
शर्मसार  हो  डूबा  सूरज स्वंय को स्वंय से  छिपाए
 
अभी कल की ही तो  बात रही 
कुछ शब्दों के अर्थ न सम्भाल पाए  
प्रस्फुटित हो खण्ड खण्ड  हो खो गए 
जब श्रवण भी स्वंय  वाक् भी स्वंय हो जाए 
फिर  किस के  सिवा  किसे दोष  दिया जाए
 
अभी कल की ही तो बात रही 
फासले यूं भी  दरम्यान न रह पाए 
गगन भर छूने लगी  एक अट्टालिका
दस पचास बस्तियां ज़मीन दोज़ कराए 
कहें  ये कि पुलिया का संविधान कर लिया  जाए
 
अभी कल की ही तो  बात रही 
किसी से कैसे ऐसे  भी बिछोह हो जाए 
कि रह जाए  मिलन की कसक  बाकि
अपाहिज अपँग वचन-वैशाखी  हो जाए 
कहें ये कि विभीषण भरोसा  कर  लिया  जाए
अभी कल की ही तो बात रही 
 प्रायश्चित  पल रहे  हुक उगाए
अन्धकार ही दीप हो  जाते 
थोड़ा वो  चले  आते  या  ये ही  चले आए  

कहते  कि पैर से है बैर बस  बहरा  कर दिया  जाए

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by नाथ सोनांचली on December 3, 2016 at 3:46am
आद0 अमिता तिवारी जी सादर अभिवादन। उत्तम रचना के लिए मेरी बधाई आपको
Comment by amita tiwari on December 3, 2016 at 12:54am

कबीर साहिब
बहुत मेहरबानी आपकी .
गल्तियोंकी तरफ ध्यान दिलाने के लिए बहुत बहुत बहुत शुक्रिया
अमिता

Comment by Samar kabeer on November 2, 2016 at 5:25pm
मोहतरमा अमिता तिवारी जी आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी रचना,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
पांचवी पंक्ति में'शर्मशार' को "शर्मसार" कर लें और 14वीं पंक्ति में 'ज़मीन जोख' को "ज़मीन दोज़"कर लें ।

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