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हाय(लघुकथा)राहिला

"देखो भूरी बिलैया भूरे कान,देखो भूरी बिलैया भूरे कान"रसोई सूनी होते ही नयी बहू द्वारा नए सिरे से सजाये नॉनस्टिक बर्तन ,सास के कहने पर रख छोड़ी प्रसाद बनाने की छोटी सी एल्युमीनियम की कड़ाही को फिर से चिड़ाने लगे।उसका जी किया वो जोर ,जोर से रो ले।
"हे भगवान इससे तो अच्छा होता,मुझे भी अपने सगे सम्बन्धियों के साथ रसोई निकाला मिल जाता।"कहते हुए दो आंसू आँखों से लुढक पड़े ।लेकिन किसी सयाने ने खूब कहा कि इतिहास खुद को दोहराता है। उसे वो वक्त याद आने लगा जब उनके आने से इसी रसोई के पुराने पीतल के बर्तनों को हटा दिया गया था,सिवा एक पतीली के।फिर उसने भी तो किस क़दर उसे इसी तरह...,अनायास उसकी चोर नज़र ऊपर तांड पर चली गयी ।जहाँ से पीतल की पतीली झांक रही थी। और उसके मुख पर अजीब सी कटीली मुस्कराहट थी।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 15, 2016 at 4:33pm

बहुत ही सुन्दर ढंग से अपने समाज की व्यापक हो रही विरूपताओं का चित्रण किया है। .... नवीनता की ओर उन्मुख इंसान किस तरह पुरानी रीत रिवाज पुराने रिश्तों एवं घर के बूढ़े पुराने सदस्यों का अनादर करता है। साथ ही समय का पहिया चलता है...आप जो देंगे वक़्त आप को वही लौटा के देगा की सुन्दर सीख देती हुई रचना 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 15, 2016 at 4:08pm
बिम्बों का बखूबी इस्तेमाल करके सुन्दर एवं प्रभावी रचना कर्म करने के लिए हार्ड8के बधाई आदरणीय राहिला जी।सादर
Comment by Ravi Prabhakar on August 14, 2016 at 7:42pm

ब्रह्माण्ड का कण-कण परिवर्तनशील है। जो परिवर्तन का पहले से ही अनुमान लगा लेता है वही अपने आप को परिस्तिथियों के हिसाब से ढालकर सफल होता है। परिवर्तन का सामना करने का सर्वोत्तम उपाय है कि उसका स्वागत किया जाए। पुराना जाता है तभी नया आ सकता है ,यही संसार का नियम है,सृष्टि का नियम है। परिवर्तन के आने से ही जीवन आगे बढ़ता है फिर चाहे यह परिवर्तन शुभ हो या अशुभ। जीवन के शास्‍वत सत्‍य को इस प्रगतिवादी एवं प्रतीकात्‍मक लघुकथा के माध्‍यम से बाखूबी बयां किया है आपने। इस बार भी लघुकथा के शीर्षक चयन का लेकर थोड़ी लापरवाही बरत गई आप मोहतरमा । बहरहाल हार्दिक शुभकामनाएं । सादर

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