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ग़ज़ल -नूर- नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)
.
नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,
कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.
.
किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,
ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.
.
अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,
अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.
.
सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.
.
परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
.
गुरूर ‘नूर” न कर; सिर्फ़ तू नहीं तन्हा,
ज़माने भर में तेरे जैसे राएगाँ हैं बहुत.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:48am

शुक्रिया आ. मिथिलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:48am

शुक्रिया अनुज जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:48am

शुक्रिया आ. समर सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:47am

शुक्रिया आ. चंद्रशेखर जी.. आप को अरसे बाद देख कर ख़ुशी हुई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:47am

शुक्रिया आ. नादिर खान साहेब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:47am

शुक्रिया आ. शिज्जू भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:46am

शुक्रिया आ. कल्पना जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:46am

शुक्रिया आ. सुनील जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:45am

शुक्रिया अमिता जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 6:45am

शुक्रिया आ. दिनेश भाई 

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