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ग़ज़ल (जख्म फिर से हरा हो गया)

जख्म फिर से हरा हो गया
दर्द -ए -दिल आइना हो गया

.
याद ऐसा किया देख कर
सोच के बाबरा हो गया

.
काम के नाम ने चोट की
दिल बचा दिल जला हो गया

.
नींद का आँख से रूठना
रोज़ का सिलसिला हो गया

.
फीस में छूट थी जो मिली
लाडला फिर बड़ा हो गया

.
दाद दो तुम जरा इसलिए
गिर के वो खड़ा हो गया

.
खेल की पोल थी जब खुली
फिर मज़ा किरकिरा हो गया

.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
मुनीष 'तन्हा'...नादौन..
9882892447

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 25, 2016 at 8:49pm

आपने २१२ २१२ २१२ बह्र पर लिखा है 

नींद का आँख से रूठना
रोज़ का सिलसिला हो गया--शेर बहुत अच्छा है मगर तकाबुले रदीफ़ दोष का शिकार हो गया ---रूठना नींद का आँख से  ...कर सकते हैं

दाद दो तुम जरा इसलिए
गिर के वो खड़ा हो गया---सानी की बह्र गड़बड़ है 

बढ़िया प्रयास है और बेहतर करने की कोशिश ज़ारी रखिये 

बहरहाल बधाई आपको 

.

 

.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2016 at 6:25pm

आदरणीय तन्हा भाई , जैसा की आ. मिथिलेश भाई जी ने काहा है , बह्र ऊपर लिख दिया कीजिये , ताकि समझने समझाने मे आसानी हो । मुज्खे आपकी ग़ज़ल के सभी मिसरे एक ही बह्र मे नही लग रहे है , आप तक्तीअ कर के देखियेगा , बहर लिख दें तो कुछ निश्चित रूप से कहा जा सके ।
बहर हाल गज़ल के भाव अच्छे हैं , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 21, 2016 at 10:09pm
आदरणीय मुनीश जी, इस मंच पर ग़ज़ल के साथ बह्र/वज़्न लिखने की परम्परा है जिसे अनुशासन की सीमा तक स्वीकार किया जाता है। निवेदन है कृपया ग़ज़ल की बह्र या वज़्न लिख दीजिये। सादर

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