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वे,
जो कभी थे निकट,
प्राणों की तरह।
धड़कते थे हर क्षण,
श्वास- प्रश्वास के साथ।
थे तो सहोदर ही,
पर अब- - - -
वे बहुत दूर ...दूर हो गए।
और जो दूर ... थे
उनकी दूरी भी , नापना दूभर है। ।


प्राणहीन जर्जर जीवन को
अपनाया एकान्त ने।
अपनी अद्भुद्ता की व्यापकता से
मोह लिया ऐसे,
कि अब, वही मेरा सगा है।
बाकी सब ने, मनमाना ठगा है। ।


शून्य को पाकर मैं,
बन गया, मालिक विराट का।
लुटाने को कितना हूँ उत्सुक,
खजाना ललाट का।
पर,
जब सबकुछ था तथाकथित
तब,
बटोरने की इच्छा थी और और।
अब,
कुछ भी नहीं है, तो .. सब कुछ लुटाने की चाह है। ।

पहले ,
लोग मांगते न थकते और
मैं,
देने में था हिचकता।
बकबकाता, तमतमाता।
अब,
भिखारी भी बिचकते हैं,
और मैं - - -
हूँ उन्हें पुकारता ..
बुलाता फिरता ..। ।

23 जनवरी 1990
मौलिक व् अप्रकाशित

Views: 476

Comment

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Comment by Dr T R Sukul on April 12, 2016 at 3:17pm

आदरणीय रामबली गुप्ता जी, रचना की प्रशंसा करने के लिए विनम्र आभार। 

Comment by रामबली गुप्ता on April 10, 2016 at 1:55pm
गहरे भावों की अभिव्यक्ति लिए बेहतरीन अतुकांत के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय सुकुल जी।
Comment by Dr T R Sukul on April 9, 2016 at 6:30am

आदरणीय सौरभ पांडेय जी, रचना पर आपकी प्रेरणास्पद उपस्थिति और सारस्वत टिप्पणीं के लिए विनम्र आभार।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 8, 2016 at 11:59pm

गहरी सोच और वर्तमान की कुदशा को अभिव्यक्त करती सार्थक रचना केलिए हार्दिक् बधाई आदरणीय टीआर सुकुल जी. 

Comment by Dr T R Sukul on April 8, 2016 at 10:15pm

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी , रचना पर आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहक टिपण्णी के लिए विनम्र आभार।

Comment by Dr T R Sukul on April 8, 2016 at 10:14pm

आदरणीय डॉ गोपालनारायण श्रीवास्तव जी , रचना पर आपकी उपस्थिति और भावो की अभिव्यक्ति प्रेरणा देती है , सादर विनम्र आभार ।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 5, 2016 at 6:23pm

शून्य को पाकर मैं,
बन गया, मालिक विराट का। 
लुटाने को कितना हूँ उत्सुक, 
खजाना ललाट का। 
पर, 
जब सबकुछ था तथाकथित 
तब, 
बटोरने की इच्छा थी और और।
अब, 
कुछ भी नहीं है, तो .. सब कुछ लुटाने की चाह है। । ० वाह  ! सब कुछ  शुन्य  से सी  प्रारम्भ  और शुन्य पर ही समाप्त  होता है | सुंदर रचना  के  लिए  बधाई  

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 5, 2016 at 9:49am

आ० प्रारम्भ बहुत अच्छा है  पर फिर ज्यों ज्यों आगे बढ़ते गए त्यों त्यों -----. थोड़ा श्रम और अपेक्षित था.  सादर .

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