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सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए (एक ग़ज़ल)......//डॉ.प्राची

2122 1122 1122 22

सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,
उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।

है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।

आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ
अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।

जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन
मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।

खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए।इनकी तकलीफ़ भला कैसे मिटाई जाए।

आग में जिसकी झुलसते झुलसती हैं ये कूचे-गलियाँ
क्यों न हर बात वही जड़ से मिटाई जाए।

बह न जाए कहीं आँखों से शरम का पानी
दिल के बंजर आँगन में चलो मेढ़ बनाई जाए।

आज भी घास की रोटी ही निवाला जिनका
उनकी रूठी हुई किस्मत भी मनाई जाए।

मौलिक और अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 23, 2016 at 8:26am

आदरणीया  प्राची जी , सर्व प्रथम गज़ल कहने की फिर से शुरुवात के लिये आपको आभार ।गज़ल अच्छी कही है , और इस पर चर्चा भी बहुत बढिया चल रहा है , बहुत दिनो बाद ये सब देख कर अच्छा लगा ।
खौफ वाले शे र पर मै एक इस्लाह दे रहा हूँ अगर सही लगे तो मंच स्वीकार करे - या चर्चा और आगे बढाये --

खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए        ----   सानी को यूँ कहें  --

बाइसे ख़ौफ बनी ताब मिटायी जाये    -  

Comment by amita tiwari on February 23, 2016 at 1:40am

great great great


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 23, 2016 at 1:24am

’ख़ौफ़’ वाले शेर की तार्किकता ही ’शेर’ के अनुरूप नहीं हो पारही है, आदरणीय समर भाईजी, जबतक कि कथ्य का ढर्रा ही न बदल दिया जाये.  वर्ना मुझे पूरा गुमान था कि आपके प्रयासों से ये वाला शेर भी अछूता न रहता.

आदरणीया प्राचीजी, कृपया उक्त शेर के कथ्य में बदलाव करें. वैसे भी सभी तथ्य शेर के कथ्य नहीं बनते !

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 22, 2016 at 10:54pm

//प्रस्तुतियों पर ऐसे बातें चलें.. और सभी भाग लें..   मज़ा आये.//

बिलकुल सहमत हूँ आदरणीय सौरभ जी 

ऐसी चर्चाएँ न सिर्फ रचनाकारों की लेखनी को परिष्कृत करने में सहायक होती है अपितु सभी सहभागियों की समझ को भी आश्वस्त करती  हुई अपेक्षित विस्तार देती हैं. अन्य सुधि पाठक तो चर्चा परिचर्चा के पाठन से लाभान्वित होते ही हैं..

साथ ही एक lively माहौल भी बनता है सीखने सिखाने का .

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 22, 2016 at 10:49pm

खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए।

एटमी शक्ति ये सागर में डुबाई जाए...... क्या ऐसे किया जाना सही रहेगा ?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 22, 2016 at 10:39pm

आ० समर कबीर जी,

ग़ज़ल पर आपके बहुमूल्य सुझावों का स्वागत है..

//प्यार की मेंहदी जो हाथों में सजाई जाए//....सुन्दर सुझाव 

"मेढ़"वाला शैर में दिल के आँगन तो बहुत खूबसूरत सुझाव है . जो मान्य है , लेकिन , निम्न प्रारूप में तो इसमें तकाबुले रदीफ़ का ऐब बनेगा.. इसलिए सिर्फ बंजर के स्थान पर आँगन कर रही हूँ.
"शर्म का पानी न बह जाए कहीं आँखों से
दिल के आँगन में चलो मेढ़ बनाई जाए"!

यथा:

है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की कहाँ प्यास बुझाई जाए

जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन 
प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।

बह न जाए कहीं आँखों से शरम का पानी
दिल के आँगन में चलो मेढ़ बनाई जाए।

Comment by Samar kabeer on February 22, 2016 at 9:27pm
जनाब सुशील सरना जी,ये सारा क्रेडिट सौरभ भाई का है !शुक्रिया !
Comment by Samar kabeer on February 22, 2016 at 9:23pm
हुज़ूर-ए-वाला मुझे शाइर का बच्चा ही रहने दें,
शेर के बच्चे पर एक लतीफ़ा याद आगया जो यहां बयान करना मुनासिब नहीं,मुलाक़ात होने पर सुनाऊंगा..हा हा हा
Comment by Sushil Sarna on February 22, 2016 at 8:08pm

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी प्रस्तुत ग़ज़ल के लिए पहले तो हार्दिक बधाई फिर इस पर आदरणीय सौरभ सर व् आ. समीर कबीर जी की टिप्पणियाँ ग़ज़ल विधा,भाव सम्प्रेषण का सुंदर मार्गदर्शन करती हैं। आ.सौरभ सर एवं समीर कबीर जी का हार्दिक आभार। 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 22, 2016 at 11:16am

जनाब समर साहब, जय जय ! जय जय !! वल्लाह !!!

क्या इस्लाह है !

कहते हैं न शेर के बच्चे को दहाड़ना सिखाना नहीं पड़ता..

:-)))

आदरणीया प्राचीजी, हम शाम तक वापस आ पायेंगे. अभी नोटिफिकेशन पर टिप्पणियों को देखा तो हमने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा दी. 

सादर

PS : प्रस्तुतियों पर ऐसी बातें चलें.. और सभी भाग लें..  क्या ही मज़ा आये !

 

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