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कस्तूर हो गयी हो

2212 122 2212 122

क्या आदतों से अपनी, मज़बूर हो गयी हो।
आँखों से मेरी काहें, तुम दूर हो गयी हो।।

सपनों में उनसे मिलता, कुछ हाल चाल कहता।
लेकिन बहुत बुरी हो, मग़रूर हो गयी हो।।

आती नहीं कभी भी, मिलने तू हमसे निदिया।।
यूँ छोड़ कर हमें तुम, मफ़रूर हो गयी हो।।

जगता रहा हूँ कब से, बीती हैं कितनी रातें।
पंकज से दुश्मनी कर, मशहूर हो गयी हो।।

तुझमें मेरे सनम में, कुछ साम्य लग रहा है।
सच सच बता रहा हूँ, कस्तूर हो गयी हो।।


मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 10, 2015 at 11:21am
आदरणीय रामअवध सर;सादर अभिवादन

बह्र जो आपने बताई है, वही है। मैंने इसका उल्लेख नीचे कमेंट बॉक्स में लिख दिया है।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 10, 2015 at 11:19am
सादर प्रणाम् सतविंदर सर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 10, 2015 at 11:08am
बहुत अच्छी लगी आपकी ये ग़ज़ल।मुबारकबाद
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 8, 2015 at 2:12pm
आदरणीय मिश्रा जी बहर मफऊल फाइलातुन, मफऊल फाइलातुन २२१ २१२२ २२१ २१२२ पर आधारित बेहतरीन गजल के लिये बधाई
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 7, 2015 at 11:18pm
आपकी मुबारकवाद का अमृत मिलते ही मन पुनः प्रसन्न हुआ; सादर अभिवादन आदरणीय समर कबीर सर
Comment by Samar kabeer on October 7, 2015 at 11:16pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी,आदाब,ग़ज़ल में इतनी स्पष्ट वादिता ,वाह बहुत ख़ूब,अच्छी ग़ज़ल कही है आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 7, 2015 at 3:23pm
आदरणीय कान्ता रॉय मैम रचना पर आशीष के लिये सादर धन्यवाद।
Comment by kanta roy on October 7, 2015 at 12:50pm

तुझमें मेरे सनम में, कुछ साम्य लग रहा है।
सच सच बता रहा हूँ, कस्तूर हो गयी हो।...............वाह !!! क्या खूब लिखा है आपने। ये मिजाज भी लिखने का अच्छा है। बधाई आपको इस रचना के लिए आदरणीय पंकज जी

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 7, 2015 at 9:42am
इस ग़ज़ल को निम्नलिखित बह्र पर पढ़ा जाये-

मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु फ़ाइलातुन
221 2122 221 2122

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