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भाव ( लघुकथा ) // शशि बंसल

" सुनिए , परसों से श्राद्ध शुरू हो रहे हैं । पड़ोस वाली चाची जी कह रही थीं , बहू घर में सुख शांति चाहिए हो तो , सोलह दिन पितरों की खूब सेवा कर । अब मुझे ये नहीं समझ आ रहा कि जो हैं ही नहीं , उनकी सेवा कैसी ?

" शरीर तो ईश्वर का भी नहीं है । फिर कौन सा तुम्हे हाथ पाँव दबाना है या दवा - दारू करनी है । परम्परा अनुसार कुछ स्वादिष्ट पकवान बनाना , हाथ जोड़ना और खाना - खिलाना ,बहुत हुआ तो चार रिश्तेदार भी बुला भेजना । इस बहाने थोड़ी जय - जयकार भी हो जायेगी तुम्हारी । बस हो गया श्राद्ध ।वो तो आके खाने से रहे अब ।"

" जी , सही कह रहे हैं आप ।मैं समझ गई हूँ कि उन्हें हमारी सेवा नहीं सिर्फ भाव चाहिए ।"

" पर बहुत देर से ।" ' सेवा न सही अगर भाव की कीमत भी समझ लेती न अंजू , तो आज यूँ सुख - शांति की चिंता न करनी पड़ती ।' वह मन ही मन बुदबुदाया ।

मौलिक व् अप्रकाशित ।

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Comment by kanta roy on September 24, 2015 at 1:12pm
" भाव " पर भाव की बहुत ही सुंदर प्रस्तुति हुई है आदरणीया शशि जी । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by TEJ VEER SINGH on September 24, 2015 at 1:01pm

हार्दिक बधाई शशि जी, इस बेहतरीन लघुकथा के लिये!बहुत करारा प्रहार किया है आपने रूढिवादिता पर!


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 12:48pm

आदरणीया शशि जी हमेशा की तरह एक बेहतरीन प्रस्तुति. इस सफल लघुकथा पर हार्दिक अबधाई 

Comment by pratibha pande on September 24, 2015 at 11:12am

पितृ पक्ष पर इस  भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिए   बधाई आपको ,आदरणीय शशि जी ,

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 24, 2015 at 4:01am
बहुत सुंदर कटाक्ष/व्यंग्य आदरणीया Shashi Bansal जी। अंतिम बुददबुदाने वाले शब्दों से कथा अपने उद्देश्य को सफलतापूर्वक संपन्न कर रही है ।बहुत बहुत बधाई।

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