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हिन्दी का अखबार – ( लघुकथा ) -

 हिन्दी का अखबार – ( लघुकथा  ) -

"रणजीत , तुम्हारे घर के फ़ाटक में यह हिन्दी का अखबार लगा हुआ था, कौन पढता है तुम्हारे घर में "!

"पहले बाबूजी पढा करते थे पर अब  कोई नहीं पढता"!

"अंकल को गुजरे हुए  तो सात साल हो गये , फ़िर  क्यों मंगाते हो"!

" बाबूजी के स्वर्गवास के बाद, मम्मीजी  की  इच्छा थी कि यह अखबार उनके जीते जी आता रहे!मम्मीजी रोज़ सुबह  हिन्दी का अखबार, बाबूजी का चश्मा, बाबूजी की चाय उनके कमरे में रख आती थी!उन्हें इससे बडा सकून मिलता था"!

"पर अब तो आंटीजी  भी नहीं रही"!

"हॉ  दीपक, अब तो मम्मीजी  भी चली गयी"!

"फ़िर क्यों मंगा रहे हो यह हिन्दी का अखबार"!

"अब वह सब मैं करता हूं जो मम्मी करती थीं, बडा सकून मिलता है, ऐसा आभास होता है जैसे मॉ बाबूजी आसपास हों और मुझे आशीर्वाद दे रहे हों”!

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by kanta roy on September 16, 2015 at 12:24am

वाह !!!! बहुत ही सुंदर एहसास हुआ है यह आदरणीय तेजवीर सिंह जी । जब मेरी बेटी पूना वापस जाती है घर से ,तो मै कई दिनों तक उस कमरे में उसकी चीजों को बिखरा कर रखती हूँ जिससे मुझे उसके यहाँ होने का भान होता रहे । ये एहसास की बातें है । बधाई इस सुंदर एहसास के लिए ।

Comment by TEJ VEER SINGH on September 15, 2015 at 7:15pm

हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी,प्रतिभा पांडे जी,हरीकिशन ओझा जी!

Comment by harikishan ojha on September 15, 2015 at 6:24pm

तीजवीर सिंह जी ह्रदय परिवर्तन के लिए धन्यवाद

Comment by pratibha pande on September 15, 2015 at 12:12pm

अच्छी लघु कथा बनी है बधाई आपको ,वैसे हिंदी का अख़बार घरों  में खूब आता  है आज भी 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 15, 2015 at 11:01am

लघु कथा का शीर्षक "सकून" होता  तो  ज्यादा सार्थक लगता क्योकि बाबूजी के कमरे में अखबार ही नहीं बाबूजी का चश्मा और चाय तक रखकर आने में बड़ा सकून मिलता है | सुंदर लघुकथा के लिए बधाई 

Comment by TEJ VEER SINGH on September 15, 2015 at 10:45am

हार्दिक आभार आदरणीय हरीकिशन ओझा जी, आपके सुझॉव पर काफ़ी गहराई से चिंतन करने के बाद मैने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया है!हालांकि यह लघुकथा बहुत पहले लिखी गयी थी!मेरे एक मित्र के परिवार से संबधित है!लघुकथा की सराहना हेतु धन्यवाद!

Comment by harikishan ojha on September 14, 2015 at 10:56am

तीजवीर सिंह जी आप अगर उर्दू की जगह हिंदी अख़बार लिखते तो यह इस हिंदी दिवस पर बेहतरीन कृति होती, क्योकि आज के जो लोग सुबह अख़बार से लेकर रात को गुड नॉइट तक इंग्लिश का इस्तेमाल करते है उन पर ये कथा कटाक्ष का काम करती, लेकिन जब से सेक्युलर सबद प्रचलित में आया है,  न जाने लोग क्यों अपनों से मुँह मोड़ लेते हैI  बाकि आप खुद मेरे से ज्यादा समझदार है, गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहूँगाI

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