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मिला आज बेटा वो बलवाइयों में (फिलबदीह ग़ज़ल 'राज')

122   122  122    122

कुहुकती है कोयलिया अमराइयों में

महकते  कई  फूल पुरवाइयों में  

 

दिखाई  न  दी आज दीवार उनकी

अजी, क्या सुलह हो गई भाइयों में ?

 

ग़मों के  भँवर में जो खोया था बचपन

मिला आज यादों की परछाइयों में

 

पिघलते हों पत्थर धुनें जिनकी सुनकर

फुसूँ हमने देखा वो शहनाइयों में

 

उजाले  में दिन के छुपे रहते बुजदिल

उमड़ते वही अब्र तन्हाइयों में

 

न कद से समंदर की औकात परखो

छुपा है खजाना तो गहराइयों में

 

वफ़ा आज जाने कहाँ को गई है

न है बांकपन में न रानाइयों में

 

पिता माँ बहन नाज करते थे जिसपर

मिला आज बेटा वो बलवाइयों में

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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Comment by rajesh kumari on September 1, 2015 at 10:33am

मिथिलेश भैया ,ग़ज़ल पर शेर दर शेर आपकी दाद  पाकर उत्साह से में आप्लावित हो उठा तथा आश्वस्त भी हुआ की अशआर अपनी बात स्पष्ट रख रहे हैं पाठक के भाव साथ जुड़ रहे हैं तहे दिल से बहुत -बहुत शुक्रिया |

Comment by pratibha pande on September 1, 2015 at 9:35am

हम  जैसों के समझ में आ जाने वाली ग़ज़ल , सबसे ज्यादा अंतिम पंक्तियाँ करती हैं भावुक 'मिला आज वो बेटा बलवाइयों में  'बहुत बधाई आपको आदरणीया  राजेश कुमारी जी    

Comment by Samar kabeer on August 31, 2015 at 11:38pm
बहना राजेश कुमारी जी,आदाब,वाह वाह वाह,ग़ज़ल और वो भी फ़िल बदीह,कमाल कर दिया ,क्या शानदार ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं,मतले के ऊला मिसरे पर कुछ शंका है ,ज़रा देखिये तो :-

"कुहुकती है कोयलिया अमराइयों में"

:- कुहुकती कोयलिया है अमराइयों में"
Comment by Sushil Sarna on August 31, 2015 at 7:18pm

न कद से समंदर की औकात परखो
छुपा है खजाना तो गहराइयों में …………… गज़ब के अहसास पिरोये हैं आदरणीया राजेश कुमारी जी आपने इस ग़ज़ल में। खुद ब खुद हर शे'र पे जुबां दाद देने को मज़बूर है .... इस दिली दाद को कबूल फरमाएं आदरणीया।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 2:14pm

आदरणीया राजेश दीदी, बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है-

कुहुकती है कोयलिया अमराइयों में

महकते  कई  फूल पुरवाइयों में  ............. बढ़िया मतला 

 

दिखाई  न  दी आज दीवार उनकी

अजी, क्या सुलह हो गई भाइयों में ?.......... वाह वाह क्या खूब कहा है ....

 

ग़मों के  भँवर में जो खोया था बचपन

मिला आज यादों की परछाइयों में................. बहुत मासूम सा शेर हुआ है 

 

पिघलते हों पत्थर धुनें जिनकी सुनकर

फुसूँ हमने देखा वो शहनाइयों में................... बढ़िया शेर 

 

उजाले  में दिन के छुपे रहते बुजदिल

उमड़ते वही अब्र तन्हाइयों में............. बहुत शानदार शेर हुआ है .... महसूस किया जाने वाला शेर 

 

न कद से समंदर की औकात परखो

छुपा है खजाना तो गहराइयों में............. बड़ा शेर दीदी .शानदार ...लाजवाब ... हासिल-ए-ग़ज़ल 

 

वफ़ा आज जाने कहाँ को गई है

न है बांकपन में न रानाइयों में.......... अच्छा शेर 

 

पिता माँ बहन नाज करते थे जिसपर

मिला आज बेटा वो बलवाइयों में............ बहुत बढ़िया शेर 

इस ग़ज़ल पर दिल से दाद कुबूल फरमाएं दीदी....

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