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डस्ट-बिन....(लघुकथा)

“अरे बिटिया यह क्या..? पूरे कमरे में  पैकिंग वाले कागजों का कचरा फैला रखा है..”

“मम्मी!! वो क्या है कि मुझे एक-दो दिन हो गये , मेरा टाईम आये.  आप कहती थी, न. कि ऐसे समय में पति की बहुत जरुरत होती है, हर नवविवाहिता को. तो मैं उनके पास जाने की तैयारी कर रही थी.."

“हाँ..बिटिया ! आदमी को तो रोज औरत चाहिए, और औरत का बस यही टाईम मजबूर करता है . बस! तू एक बार उसे, संयुक्त परिवार से निकाल ले. क्यूंकि मैं अपनी तरह तुझे भी, खुश देखना चाहती हूँ. तू अभी जा, फिर मैं बुला लूंगी किसी भी बहाने से.."

“हाँ!! मम्मी..! मैं आप ही की तरह जीना चाहती हूँ. सुनो तो मम्मी, आप ऑफिस से थकी आई हो, सारा कचरा मैं अभी डस्ट-बिन में डाल दूंगी....”

जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 3, 2015 at 12:01am

नहीं, आदरणीय गिरिराज भाई, आप बिल्कुल सही हैं. जितेन्द्रभाई के प्रस्तुतीकरण में स्पष्टतः संप्रेषणीयता की कमी है. 

जितेन्द्र भाई बहुत दिनों के बाद आपको मंच पर देख कर आत्मीय प्रसन्नता हुई है.  विश्वास है, सब कुशल-मंगल है 

प्रस्तुति पर तनिक और समय देना चाहिये था 

शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 27, 2015 at 10:14am

आदरणीय जितेन्द्र भाई , पहली बार आपकी कथा पढ के ऐसा लगा कि आप जो कहना चाहते हैं , कह नही पाये हैं । वैसे मै भी गलत हो सकता हूँ , मुझे लघुकथा का ज्ञान नही है , फिर भी एक बार पुनः कथा पर सोच कर देखियेगा । कथा के विषय के लिये बधाई आपको ।

Comment by Archana Tripathi on August 25, 2015 at 11:44pm
आपकी यह रचना कुछ उलझी हुई लग रही हैं ।क्षमा कीजियेगा जीतेन्द्र पस्टारीया जी ।कृपया स्पष्ट करने की कृपा कीजिये ।

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