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नाम माशूक का तो खूँ से लिखा करते थे(तरही ग़ज़ल 'राज')

चीर चट्टान के सीने को मिला करते थे

तब मुहब्बत में सनम लोग वफ़ा करते थे  

 

काट देता था ज़माना भले ही पर नाजुक 

होंसलों से नई परवाज़ भरा करते थे

 

दिल के ज़ज्बात कबूतर के परों पर लिखकर

प्यार का अपने वो  इजहार किया करते थे

 

कैस फ़रहाद या राँझा कई दीवाने तब   

नाम माशूक का तो खूँ से लिखा करते थे

 

एक हम थे  जो जमाने  की नजर से डरकर

जल्द खुर्शीद के ढलने की दुआ करते थे 

 

आज वो रह गए केवल मेरा सपना बनकर

चाँदनी रात में हम जिनसे मिला करते थे  

 ------------मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by kanta roy on August 25, 2015 at 9:11am

वाह !!!! क्या सुंदर गजल हुई है ये । चीर चट्टान के सीने को मिला करते थे तब मुहब्बत में सनम लोग वफ़ा करते थे......... बहुत खूब कहा है आपने ..... वो लोग जाने कैसे हुआ करते थे ! बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी

Comment by pratibha pande on August 25, 2015 at 8:06am
'तब मोहब्बत में सनम लोग वफ़ा करते थे' गीत की तरह बहती हुई प्यारी सी ग़ज़ल के लिए मेरी बधाई लें आप आ० राजकुमारी जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 24, 2015 at 12:21pm

मिथिलेश भैया ,सबसे पहले मैं अपनी भूल सुधारती हूँ .इसकी बह्र है ----२१२२   ११२२   ११२२   २२  

हर अशआर पर आपकी दाद मेरी कलम में नव ऊर्जा भरती हुई प्रतीत हुई लिखना सार्थक हो गया आपका दिल से बहुत -बहुत- बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 24, 2015 at 12:18pm

हर्ष महाजन जी ,आपको ग़ज़ल उसके भाव प्रभावित कर सके मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से शुक्रिया ,आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 24, 2015 at 11:50am

आदरणीया राजेश दीदी, 

बड़ी प्यारी और खूबसूरत ग़ज़ल हुई है, ग़ज़ल की सादगी और ताजगी दिल में उतर गई "तब और अब" की पृष्ठभूमि पर बहुत बढ़िया शेर निकाले है आपने. शेर दर शेर दाद हाज़िर है -

चीर चट्टान के सीने को मिला करते थे

तब मुहब्बत में सनम लोग वफ़ा करते थे  ............. बहुत खूबसूरत मतला 

 

काट देता था ज़माना भले ही पर नाजुक 

होंसलों से नई परवाज़ भरा करते थे........ बहुत बेहतरीन 

 

दिल के ज़ज्बात कबूतर के परों पर लिखकर

प्यार का अपने वो  इजहार किया करते थे.......... वाह वाह 

 

कैस फ़रहाद या राँझा कई दीवाने तब   

नाम माशूक का तो खूँ से लिखा करते थे......... बढ़िया 

 

एक हम थे  जो जमाने  की नजर से डरकर

जल्द खुर्शीद के ढलने की दुआ करते थे ........... वाह वाह दीदी कमाल का शेर हुआ है. क्या कहन है... हासिल-ए-ग़ज़ल  

 

आज वो रह गए केवल मेरा सपना बनकर

चाँदनी रात में हम जिनसे मिला करते थे  ............. बहुत सुन्दर शेर 

इस शानदार ग़ज़ल पर दिल दे दाद हाज़िर है. 

लेकिन दीदी एक बात और बह्र या वज्न आप भूल गई लिखना .....

Comment by Harash Mahajan on August 24, 2015 at 11:28am

आदरणीय rajesh kumari  जी ग़ज़ल में वज़न इतना की दिल में ठहर गई | वाह...अहसासों को बड़े ही सलीके से सजाकर पेश किया .आपने ...हर शेर पर दाद वसूल पाइयेगा ....मगर ये शेर तो बस.....
." दिल के ज़ज्बात कबूतर के परों पर लिखकर

प्यार का अपने वो  इजहार किया करते थे".....वाह क्या बात है ! एक दम सच .. इस बंद ने सोच को कितने दूर तक सोचने को मजबूर कर दिया | ...ढेरों दाद !! वसूल पाइयेगा !! साभार !!

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 24, 2015 at 10:36am

आ० डॉ० गोपाल नारायण भाई जी,ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया का तहे दिल से स्वागत व् आभार है |  

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 24, 2015 at 10:34am

आ० दीदी

क्या खूबसूरत गजल कही आप् ने . एक-एक  शेर मोती  जैसा  और फिर वह पुराना दर्द -

आज वो रह गए केवल मेरा सपना बनकर

चाँदनी रात में हम जिनसे मिला करते थे


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Comment by rajesh kumari on August 24, 2015 at 10:16am

आ०  योगराज जी ,ग़ज़ल को फीचर करने के लिए आपकी नवाजिशों का तहे दिल से शुक्रिया |

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