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ग़ज़ल--पागल! वहाँ से दूर रख (मिथिलेश वामनकर)

2122 / 2122 / 2122 / 212     (इस्लाही ग़ज़ल)

 

बेबसी को याख़ुदा मुझ नातवाँ से दूर रख        

या तो ऐसा कर मुझे मुश्किल जहाँ से दूर रख

 

उस परीवश को घड़ी भर आज जाँ से दूर रख

एक दिन तो जिंदगी आहो-फुगाँ से दूर रख

 

ख़ाक कर देंगे तख़य्युल-ओ-तगज्जुल मान ले     

अपनी ग़ज़लों को सियासत की ज़ुबाँ से दूर रख

 

हाशिया देता नहीं वो, कह रहा इस दीप को

इस जमीं से दूर रख, उस आसमाँ से दूर रख

 

दौलतें तहजीब जिनकी औ खुदा पैसा रहा

बेटियों को ऐसे ऊँचें खानदाँ से दूर रख

 

वाकिया था, हादसा बन हो गया है मज़हबी

उस सुलगती आग को हर इक मकाँ से दूर रख

 

आसमाँ अपना दिखा के लूट लेगा छत मेरी

ये गुजारिश है ख़ुदा, उस साएबाँ से दूर रख

 

आज मत समझा मुझे सच, राम ही मेरा ख़ुदा

अब मुझे उस बाबरी की दास्ताँ से दूर रख

 

अब किसी की याद का बख्तर नहीं है सीने में

ज़ार दिल को आज वहशत के समाँ से दूर रख

 

वाहवाही नासमझ की, है सुखनवर की कज़ा

याखुदा इतना करम, उस कद्र-दाँ से दूर रख

 

जिस तरह चाहे मुझे चल आजमा ले तू, मगर

बस जरा ना-कामयाबी.... इम्तिहाँ से दूर रख

 

आज ऐसा हो न जाए तेरा सीना चीर दे

चल हटा दे डायरी, पागल.! वहाँ से दूर रख

 

सिर्फ क्या हासिल हुआ ‘मिथिलेश’ ये मत सोच तू

दोसती को कम-से-कम सूदो-ज़ियाँ से दूर रख

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 9:33pm

आदरणीय नादिर खान जी, सराहना, ग़ज़ल के प्रयास पर आत्मीय प्रशंसा और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2015 at 8:41pm

वाह आदरणीय मिथिलेश भाई बेहतरीन ग़ज़ल लम्बी ज़रूर है लेकिन बाँधे रखती है दाद ओ मुबारक़बाद कुबूल फरमायें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 27, 2015 at 7:10pm

वाह वाह ! क्या ग़ज़ल हुई है ! कुछ शेर तो वाकई गहरी सोच का प्रतिफल हैं.
हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश भाईजी.

Comment by नादिर ख़ान on July 27, 2015 at 6:18pm

आदरणीय मिथिलेश जी एक एक शेर लाजवाब और खूबसूरत लहज़े में कहा गया है, बहुत मुबारकबाद....

शेरो में जिंदगी का अनुभव, नसीहत बन  उभरा ....

सुन्दर सोच की उत्तम ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई ।  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 5:34pm

आदरणीय  Manoj kumar Ahsaas भाई जी,  सराहना, सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.

Comment by मनोज अहसास on July 27, 2015 at 5:26pm
ये खाकसार आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल को सलाम करता है
बेमिसाल
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:53pm

आदरणीय समर कबीर जी एक निवेदन किया था आपसे तरह और तर्ह के अंतर को स्पष्ट करने विषयक. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:52pm

आदरणीय समर कबीर जी इस मिसरे के अनुमोदन हेतु आभार...

Comment by Samar kabeer on July 27, 2015 at 1:52pm
"इस सुलगती आग को हर इक मकाँ में से दूर रख" अच्छा शैर है इसे ग़ज़ल से हटाने की बात क्यों कर रहे हैं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 12:21pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी,  सराहना, सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.

कृपया ध्यान दे...

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