रोज की तरह आज भी मैं उसे पढ़ाने उसके घर पहुँचा और वो भी आदतन पहले ही दरवाज़े के पास खड़ा मेरा ही इंतज़ार कर रहा था. उसने आनन-फ़ानन में दरवाज़ा खोला और बिना दरवाज़ा बंद किए ही पुस्तकें लाने अन्दर की ओर भागा. वो यही कोई 6-7 साल का बहुत ही प्यारा और कुशाग्र बुद्धि का बालक था. उसका नाम दर्शन था. मैं उसे जो भी पढ़ता था, वो सब बड़े गौर से सुनता और सहेज कर रखता था. प्रश्नों की खान था वो बच्चा और उसकी जिज्ञासाएँ कभी शांत नहीं होतीं थीं और यही उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत थी कि वो आसानी से संतुष्ट नहीं होता था. वो मुझसे बहुत बहुत जुड़ा हुआ था और मैं भी. मैं हमेशा उसे अच्छी से अच्छी बातें बताता और अच्छी शिक्षा देने की कोशिश करता था ताकि उसका बालमन अभी से सही-ग़लत, उचित-अनुचित का भान करना सीखने लगे. बच्चे तो कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जैसे और जिस रूप में चाहो, गढ़ लो. निर्भर शिक्षकों पर, और उससे भी पहले परिवार(माता-पिता-भाई-बहन इत्यादि) अथवा अभिभावकों पर करता है कि हम गढ़ क्या रहे हैं, एक अच्छा इंसान या हैवान.
हस्ब-ए-मामूल(आदत के मुताबिक) वो बिस्तर के बीचोंबीच अपनी समाज अध्ययन की पुस्तक खोल कर बैठ गया. आज मैं उसे सामाजिक सद्भावना एवं सर्वधर्म समभाव पर आधारित एक अध्याय पढ़ा रहा था. मैंने उसे पढना शुरू करने को कहा तो उसने जोर-जोर से पढना शुरू किया. अभी मुश्किल से कुछ ही पल बीते होंगे कि बगल वाली मस्जिद से शाम की नमाज़ से पहले की अज़ान की आवाज़ आने लगी. अज़ान की आवाज़ उसके कानों में पड़ते ही उसके चेहरे के भाव एकाएक बदलने लगे. मैंने गौर किया कि अभी तक जहाँ मासूमियत एवं प्रेम रूपी उजाला फैला था, वहीँ उसी प्यारे से मुखड़े पर घृणा एवं क्रोध मिश्रित तमस का प्रसार हो रहा था. मैंने उसके चेहरे की ओर गौर से देखते हुए पूछा ‘क्या हुआ दर्शन?’, उसने उसी नफरत भरी तीखी आवाज़ में कहा ‘देख नहीं रहे हैं सर, कितना हल्ला कर रहा है ई मीयाँ लोग? ई सब को तो मार-मार के पाकिस्तान भगा देना चाहिए’
उसका अप्रत्याशित उत्तर सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे पूरे शरीर में बिजली का करंट दौड़ा दिया हो. मैंने अपने दुःख मिश्रित गुस्से पर काबू पाते हुए उससे पूछा ‘मुसलमानों को “मीयाँ” कहना किसने सिखाया तुम्हें? और ये सारी बातें कौन बताता है तुम्हें?’
अब वो स्वयं को थोड़ा संयत करते हुए मुझे बताने लगा ‘सर, मेरे घर में तो सब मींयाँ हीं कहते हैं मुसलमन्ना सब को, पापा-मम्मी तो हमको हरदम कहते रहते हैं कि स्कूल में और हर जगह मींयाँ सब से दूर ही रहना, और ये भी कहते हैं कि मुसलमन्ना सब छोटा-छोटा बच्चा सब को पकड़ के, बोरा में बंद कर के ले जाता है, उनको कुट्टी-कुट्टी(टुकड़े-टुकड़े) काट के, बोरा में बंद कर के फेंक देता है. मेरी दीदी तो मींयाँ सब को कट्टा कहती है’.
मैं अवाक्, आश्चर्यचकित सा उसका चेहरा हीं देखता रह गया जहाँ से सारी मासूमियत ग़ायब हो चुकी थी एवं घृणा का वीभत्स रूप दिख रहा था. मेरे दिमाग ने काम करना लगभग बंद कर दिया था, सामाजिक अध्ययन की वो पुस्तक ‘सामाजिक सद्भावना एवं सर्वधर्म समभाव’ का अध्याय खोले मुझे मुँह चिढ़ा रही थी और मैं मुँह छुपाता सा उठकर चल चुका था. क़दम मन मन भर के हो रहे थे, उठाए नहीं उठ रहे थे, सारे दृश्य बदल चुके थे.
मेरी दाहिनी ओर सड़क पर, ‘सामाजिक सद्भावना’ एक किनारे बैठा दहाड़ें मार-मार कर रो रहा था, ‘सर्वधर्म समभाव’ अपना सिर सड़क से टकरा-टकरा कर लहूलुहान कर चुका था और ‘धर्मनिरपेक्षता’ का तो जैसे किसी ने चेहरा ही भद्दे तरीके से कुचल दिया था.
मेरे पैर लड़खड़ा रहे थे, आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था और सिर पर बचपन में पढ़ा एक वाक्य दनादन हथौड़े बरसा रहा था-
“परिवार प्रथम पाठशाला है”
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
Comment
धन्यवाद आ. राजेश मैम, आपने अपना बहुमूल्य समय दिया, उत्साहवर्धन के शब्द कहे, मेरी सोच-मेरे नजरिये की तारीफ़ की आपने, आपको पसंद आई मेरी कहानी, इसके लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ. आप सबों के प्रेरक वाक्य ही मेरी कलम को और धारदार और स्थापित करने में सहायक होंगे. धन्यवाद!!
परिवार पहली पाठशाला है इसमें कोई दो राय नहीं हैं स्कूल तो बच्चा बाद में जाता है माँ बाप तो पहले से ही पाठ पढ़ा चुके होते हैं न जाने ये घ्रणा ये द्वेष कब खत्म होंगे बहुत ही संवेदन शील मुद्दे पर आपने लिखा है हमने भी जीवन में बहुत बार इस तरह के वाकये देखे और सुने हैं जब तक घर से ही सही शिक्षा नहीं दी जायेगी यही हाल होता रहेगा इसी तरह साम्प्रदायिक झगड़े होते रहेंगे आपकी ये कहानी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है आज कल ऐसे लेखन की आवश्यकता है |इस कहानी पर आपको दिल से ढेरों बधाई ..लिखते रहिये हार्दिक शुभकामनाएँ प्रशांत जी |
धन्यवाद आदरणीय गिरिराज सर, Santlal Karun सर, कान्ता रॉय मैडम एवं नीरज शर्मा मैडम. अपनी लेखनी को और धारदार और ताकतवर बनाने में आप सभी विद्व्द्जनों के सुझावों और आशीर्वाद की अपेक्षा रखता हूँ.
“परिवार प्रथम पाठशाला है”-- बहुत सही कहा आपने । बाकी सब अपनी अपनी हद में बंधे हैं। सुन्दर व सोचने को मजबूर करती लघुकथा। बधाई आ.प्रशान्त जी।
आ. प्रशांत जी, शिल्प और संवेदना दोनों दृष्टियों से से यह उत्तम रचना है | हार्दिक साधुवाद !
आदरणीय प्रशांत भाई , आपकी कहानी अच्छी लगी , प्रेरक भी और सत्य भी । दिली बधाइयाँ आपको ।
आदरणीय मिथिलेश सर, काफ़ी ख़ुशी हुई ये जानकर कि आपको कहानी पसंद आई, बेहतरी का हर संभव प्रयास जारी रहेगा,आप सभी गुणीजनों एवं विद्वानों के ज्ञान और संगति का भरपूर लाभ उठाना चाहूँगा यहाँ. अभी तो बस परिवार में आगमन ही हुआ है मेरा. स्नेह एवं आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ.
आदरणीय प्रशांत जी बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है. कथ्य का मर्म “परिवार प्रथम पाठशाला है” उभरकर सामने आ रहा है.
यह भी अवश्य है कि कथ्य का मर्म जिन शब्दों में और जैसा शाब्दिक हुआ है, वह थोड़ा और गठन चाहता है. इस विषय को एकाध बार मैंने भी अपनी नज़्म अपना घर में छुआ है इसलिए इसे और भी गहराई से महसूस कर रहा हूँ. छोटी कहानी का आपका आश्वस्तकारी प्रयास यकीनन संभावनाओं से भरा है. इस प्रस्तुति पर बधाई और शुभकामनायें.....
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