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अँधा (लघुकथा)

“अरे बाबा ! आप किधर जा रहे है ?,” जोर से चींखते हुए बच्चे ने बाबा को खींच लिया.

बाबा खुद को सम्हाल नहीं पाए. जमीन पर गिर गए. बोले ,” बेटा ! आखिर इस अंधे को गिरा दिया.”

“नहीं बाबा, ऐसा मत बोलिए ,”बच्चे ने बाबा को हाथ पकड़ कर उठाया ,” मगर , आप उधर क्या लेने जा रहे थे ?”

“मुझे मेरे बेटे ने बताया था, उधर खुदा का घर है. आप उधर इबादत करने चले जाइए .”

“बाबा ! आप को दिखाई नहीं देता है. उधर खुदा का घर नहीं, गहरी खाई है .”

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११/०७/२०१५ 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 724

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Comment by Omprakash Kshatriya on July 12, 2015 at 6:08pm
आदरणीया Savita Mishra जी
आप ने सही कहा है । बच्चे पालक को बोझ समझने लगे है ।
आभार आप का ।
Comment by Omprakash Kshatriya on July 12, 2015 at 6:05pm
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जी
आप ने लघुकथा की सार्थक समीक्षा की । इस हेतु मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ । आभार इस हेतु आप का ।
Comment by Omprakash Kshatriya on July 12, 2015 at 6:01pm
आभार आ Tej Veer जी
आप समीक्षात्मक टिपण्णी हेतु ।
Comment by savitamishra on July 12, 2015 at 5:41pm

आजकल के माहौल पर बहुत तीक्ष्ण प्रहार करती हुई कथा ..बूढ़ा होते ही पालक बोझ बन जाता हैं | सादर नमस्ते

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 12, 2015 at 12:16pm

लघु कथा पाठक को झटका देती  है और यही इस मार्म्क कथा की  सफलता  है | सुंदर संदेशात्मक लघु कथा के  लिए बधाई 

Comment by TEJ VEER SINGH on July 12, 2015 at 11:40am

आदरणीय ओम जी, बहुत खूब, एक अपाहिज़ व्यक्ति से उसके परिवार वाले भी निज़ात पाने की चेष्टा करते हैं!मार्मिक कथा! हार्दिक बधाई!

Comment by Omprakash Kshatriya on July 12, 2015 at 7:54am

आदरणीय  मिथिलेश वामनकर  जी 

सदर प्रणाम आप को . आप ने लघुकथा  की इतनी सही और सटीक व्याख्या की है कि मुझ से कुछ कहते नहीं बन रहा है . आप की इस व्याख्या से आप के व्यक्तित्व और कृतित्व का पता चलता है . आप  कितनी सधी हुई कलम से अपने विचार व्यक्त करते है. आप की इस सरलता और बेबाक शैली के लिए मेरा नमन . कृपया कमी से भी अवगत करवाए. ताकि भविष्य में उसे दूर कर सकू. आभार आप का .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 12, 2015 at 1:14am

आदरणीय ओमप्रकाश जी,

बहुत ही सधे हुए ढंग से कथानक की  कसावट बरकरार रखते हुए, बहुत ही प्रभावशाली लघुकथा आपने लिखी है. लघुकथा में जिस संश्लिष्ट कथ्य की अपेक्षा की जाती है वह तो मौजूद है ही, साथ ही लघु आकार के सहित इसमें एक पूरी कथा भी सम्मिलित है.

आमतौर पर ऐसे विषयों पर लघुकथा को वाचाल होते देखा गया है किन्तु आपने इतने तनाव और द्वंद के बावजूद भी लघुकथा को वाचाल नहीं होने दिया. लघुकथा के चरमोत्कर्ष पर अंत ही इसकी सफलता का बड़ा कारण हुआ करता है. इस दृष्टि से भी इस लघुकथा में कथ्य का उद्घाटन अत्यंत मार्मिक अंत के साथ हुआ है. यही कारण है कि लघुकथा पैनी और सशक्त हुई है.

 

जिस संतान को एक पिता कठिन स्थितियों में भी निस्वार्थ भाव से पालता है उसके दायित्व को न केवल वह संतान भूल जाती है अपितु अपने माता पिता को बोझ समझने लगती है. ये समाज की एक ऐसी विडंबना है, एक ऐसा कटु सत्य है जो कथा में पूरी सघनता से अभिव्यक्त हुआ है. लघुकथा का मर्म पूरी सांद्रता से पाठक के ज़ेहन को झटका देता है और गहरे तक प्रभावित करता है.

इस सफल और सशक्त लघुकथा पर हार्दिक बधाई निवेदित है.

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