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1.

फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फाइलुन

२२ २२ २२ २२ २१२ 

बहरे मुतदारिक कि मुजाहिफ सूरत 

************************************************************************************************************************

जब से वो मेरी दीवानी हो गई 

पूरी अपनी राम कहानी हो गई 

काटों ने फूलों से कर लीं यारियां 

गुलचीं को थोड़ी आसानी हो गई 

थोड़ा थोड़ा देकर इस दिल को सुकूं

याद पुरानी आँख का पानी हो गई 

सारे बादल छुट्टी पर जबसे गए

सूरज से थोड़ी शैतानी हो गई 

जब जब आँखों से तुमको पढने चले  

तब तब धड़कन की मनमानी हो गई

जब भी सुनानी चाही अपनी दास्तां

एक ग़ज़ल फिर से तूलानी हो गई 

जितना था सब नाम तुम्हारे कर दिया 

हमसे इतनी सी नादानी हो गई 

2.

फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्

१२२ १२२ १२२ १२२

बहरे मुतकारिब मुसम्मन सालिम

**********************************************************************************************************************

वो उड़ने का अपने हुनर बेचता है 

परिंदा कटे अपने पर बेचता है 

नहीं है पता जिसको खुद का ठिकाना 

सुना है वो शम्स-ओ-कमर बेचता है 

जो शाम-ओ-सहर बेच कर कुछ न पाया 

तो तपती हुई दोपहर बेचता है 

वो ऊँची ईमारत का नक्शा दिखाकर

गरीबों को कागज़ पे घर बेचता है 

मिली थी विरासत में जितनी भी दौलत

वो उनको बस एक एक कर बेचता है 

अदाकारी उसकी ज़रा देखो 'राणा'

बस अड्डों पे लाल-ओ-गुहर बेचता है 

*************************************************************************************************************************

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Harash Mahajan on July 27, 2015 at 2:48pm

आदरणीय Rana Pratap Singh  जी बहुत ही अच्छी  और सशक्त ग़ज़ल हुई है | प्रेरित करने वाली  !! हार्दिल बधाई सर !
साभार


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 16, 2015 at 11:19pm

वाह ! एक अरसे बाद आपकी प्रस्तुतियों को पटल पर देख कर अच्छा लगा. दोनों ग़ज़लें बहुत ही सुन्दर हुई हैं. दोनों ग़ज़लों के सभी शेर कोटेबल हैं.  दिली दाद लीजिये राणा भाई.

Comment by MAHIMA SHREE on July 12, 2015 at 5:20pm

वाह दोनों ग़ज़ले खूबसूरत हुई हैं..बधाई

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 9, 2015 at 9:19am

बेहतरीन आदरणीय राना  जी.

Comment by shree suneel on July 9, 2015 at 12:40am
जब जब आँखों से तुमको पढने चले
तब तब धड़कन की मनमानी हो गई... ख़ूब .. बहुत ख़ूब

वो उड़ने का अपने हुनर बेचता है
परिंदा कटे अपने पर बेचता है. .. व्वाहह! क्या बात है!
आदरणीय राणा प्रताप सर जी, इन ख़ूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिल से बधाइयाँ आपको. खा़स तौर से दूसरी ग़ज़ल के लिए. सादर.
Comment by narendrasinh chauhan on July 8, 2015 at 6:42pm

खूब सुन्दर गजल के लिए हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 5:52pm

आदरणीय राणा भाई , बहुत शुक्रिया , एक अलिफ वस्ल तक ही समझ पाया था , दूसरे की कल्पना भी नही कर पाया । अब समझ आ गया । आपका बहुत आभार ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 8, 2015 at 5:30pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भैया आपके अनुमोदन से लेखन सार्थक हुआ|


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 8, 2015 at 5:30pm

भाई कृष्ण मिश्र जी आपने गजलों को पसंद किया यह हमारी खुशकिस्मती है|


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 8, 2015 at 5:29pm

आदरणीय गिरिराज जी नवाजिश करम मेहरबानी है आपकी| आपने जिस मिसरे की तकतीअ करने को कहा है दरअसल वहां पर दो बार लगातार अलिफ़ वस्ल हुआ है 

वो/1/उन/२/को/२ ब/1/से/२/के/२/क/1/कर/२/बे/२/च/1/ता/२/है/२

सादर|

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