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ग़ज़ल -- एक प्रयास (मिथिलेश वामनकर)

मुफ़तइलुन / मफ़ाइलुन/  मुफ़तइलुन / मफ़ाइलुन  (इस्लाही ग़ज़ल)
2 1 1 2 /  1 2 1 2 /  2 1 1 2 /  1 2 1 2

 

गम दे, ख़ुशी दे ज़िन्दगी, कितनी किसे हिसाब क्या              

दरिया फ़ना हयात का,   मुझसा वहां हुबाब क्या                     हुबाब-बुलबुला

 

हँस के जिए दुआ किये, मर भी गए दुआ दिए  

तुम ही कहो ऐ मेहरबां, सबसे बड़ा सवाब क्या                      सवाब-पुण्य

 

कहते रहे वो माज़रा, ........पूछा तो इस निज़ाम से

जिनसे किया सवाल था, उनसे मिला जवाब क्या

 

गम ने मुझे सिखा दिया, ..........गैर नहीं बशर कोई    

दिल से जिसे लगा लिया, फिर क्या गदा नवाब क्या               गदा-भिखारी

 

रंग-ए-जहाँ न रौशनी, ........है न ज़िया की आरज़ू

नूर-ए-ख़ुदा न मिल सका,   कोई हसीन ताब क्या                   ताब-चमक

 

दिल का पता न होश का, जब से मिली नज़र जवां

मद से भरे वो दो नयन,  कितना नशा, शराब क्या

 

उनके हसीन ख़्वाब का, फिर से जफ़ा ही हश्र है

आँखें नहीं रही अगर,   कहिये वहां सराब क्या                     सराब-मृगमरीचिका

 

दिल में ग़मों के साथ हम,    लब पे हँसी लिए रहे

हम भी तो खुशमिजाज़ है,  इससे बड़ा खिताब क्या

 

अब हो गया तमीज़ का......... उरियां वुजूद देखियें

आब-ओ-हया न आँख में, फिर ये भला हिज़ाब क्या

 

तुम न रहे करीब भी,.............तुम न बने हबीब ही

खुल जो गई ये असलियत,अब के नया नकाब क्या

 

हमको मिला न तज्रिबा,  भटका किये जो दर-ब-दर

हमसे हयात ने कहा-   “मुझसे गजब किताब क्या”

 

इसको कभी उसे कभी,............रोये कभी हँसे कभी, 

मर भी गए जो दफअतन फिर ये ख़ुशी अज़ाब क्या

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 27, 2015 at 10:29pm

आदरणीय कृष्ण भाई सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आभार.

Comment by shree suneel on May 27, 2015 at 5:32pm
हमको मिला न तज्रिबा, भटका किये जो दर-ब-दर
हमसे हयात ने कहा- “मुझसे गजब किताब क्या”... बहुत ख़ूब शे'र
अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय मिथलेश वामनकर सर. कई अशआर दिल को छू गये.
'दिल में ग़मों के साथ हम, लब पे हँसी लिए रहे
हम भी तो खुशमिजाज़ है, इससे बड़ा खिताब क्या'.. व्वाहह
अच्छी पेशकश.. बधाई आपको..
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 27, 2015 at 2:36pm
रंग-ए-जहाँ न रौशनी, ........है न ज़िया की आरज़ू
नूर-ए-ख़ुदा न मिल सका, कोई हसीन ताब क्या ....
दिल में ग़मों के साथ हम, लब पे हँसी लिए रहे
हम भी तो खुशमिजाज़ है, इससे बड़ा खिताब क्या..बेहतरीन
हमको मिला न तज्रिबा, भटका किये जो दर-ब-दर
हमसे हयात ने कहा- “मुझसे गजब किताब क्या”...बिलकुल सहमत हूँ वाकई सबसे बड़ी किताब
आदरणीय मिथिलेश जी ..आपकी ग़ज़लों के माध्यम से जहाँ नूतन बिचारों से अवगत होने का मौका मिलता है वही उर्दू के तमाम शब्द सीखने को मिल जाते हैं इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई के साथ सादर
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 27, 2015 at 12:24pm

बहुत कठिन बहर में खुबसूरत गज़ल हुयी है आ० मिथिलेश सर! हार्दिक बधाई

गम ने मुझे सिखा दिया, ..........गैर नहीं बशर कोई    

दिल से जिसे लगा लिया, फिर क्या गदा नवाब क्या           लाजवाब!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 26, 2015 at 11:55pm
आदरणीय समर कबीर जी,
नवाब पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर संतोष हुआ और 'सुआल' बारे में पहली बार पता चला। हार्दिक आभार इस साझा हेतु।
Comment by Samar kabeer on May 26, 2015 at 10:49pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,इस परेशानी से मैं भी जूझता रहता हूँ,आपने जो मिसरे बदले हैं वो बहतर है,"हम्माम" शब्द आम बोलचाल में भी "हम्माम" ही बोला जाता है,"एक हम्माम में सब नंगे" ये मुहावरा आपने पढ़ा,सुना होगा,अब रही बात "नव्वाब" शब्द की तो ये ज़रूर आम बोलचाल में "नवाब" बोला जाता है,इसके लिये क़ाफ़िया बदलने या शैर को रद्द करने जैसी बात नहीं होनी चाहिए ,ये शब्द उर्दू के उन शब्दों में शामिल हैं जिन्हें "ग़लातुल आम फ़सीह" क़रार दिया गया है,अब मिसाल के तौर पर एक शब्द देखिये ,
(ये बात शायद आपके लिये नई हो) "सवाल" डिक्शनरी की रू से देखेंगे तो सही शब्द है "सुआल" लेकिन बड़े बड़े शाइरों के यहाँ इसे "सवाल" ही लिखा,पढ़ा जाता है ,तो इस हिसाब से "नवाब" का क़ाफ़िया दुरुस्त है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 26, 2015 at 7:15pm

इस ग़ज़ल को गुनगुनाते हुए अचानक एक गीत की लय पर फिट बैठ गया
"जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी याद में"
मुखड़े में दो रुक्न ज्यादा है लेकिन अंतरा की धुन फिट बैठ गई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 26, 2015 at 6:28pm
आदरणीय सौरभ सर अंत भला तो सब भला। आखिर सफ़ाई तो हो गई।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 6:20pm

// कुछ गलतियां नज़र के सामने होकर भी दिखाई नहीं देती। //

ये आप किससे कह रहे हैं आदरणीय ! मुझसे बेहतर ये और कौन जानेगा ?.. . :-))

अभी अपनी हालिया ग़ज़ल पर इसी दशा से दो-चार हुआ हूँ. वो तो भला हो ओबीओ मंच का, जिसके सदस्य प्रखर पाठक तो हैं ही, बड़े महीन फ़िल्टर भी हैं.. या, सूप की तरह हैं, जो सार सार को गहि रखे, थोथा देइ उड़ाय !! 

शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 26, 2015 at 6:18pm
आदरणीय बागी सर ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार।
नूर-ए-ख़ुदा / नूरे-ख़ुदा का वज़्न 2112 ही होगा क्योंकि हर्फ़-ए-उला का आख़िरी अक्षर (जिसके व्यंजन में इजाफत के बाद "ए" स्वर को योजित किया जाता है) यदि लघु मात्रिक हो तो हर्फ-ए-इजाफत जुडने के बाद भी लघु मात्रिक ही रहता है ।
जैसे ख़ुदा का नूर की इज़ाफत नूर-ए-ख़ुदा को पढ़ते नूरे-ख़ुदा है लेकिन र लघु मात्रिक ही रहता है।

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