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ग़ज़ल :- ज़िन्दगी जोड़ने घटाने में

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान

ज़िन्दगी जोड़ने घटाने में
आगए मौत के दहाने में

सब ही सुनते हैं शौक़ से उसको
ज़िक्र तेरा हो जिस फ़साने में

गालियाँ खाके भी निगलते रहे
हीरे मोती थे उसके खाने में

उसकी आँखो का वो फ़ुसूं,तौबा
आगए हम भी वरग़लाने में

ये उसी नस्ल के तो हैं,जिनका
नाम है हड्डियाँ चबाने में

जैसे हो वैसे क्यूँ नहीं दिखते
मसलहत क्या है मुस्कुराने में

आप ईमान लाए हो भाई
फिर भी तकरार सर झुकाने में

दिल को कितना सुकून मिलता है
उसकी आयात गुनगुनाने में

लोग क्या क्या ख़रीद लेते थे
इक ज़माना था,एक आने में

वो अलादीन का नहीं था,प हाँ
इक दिया था ग़रीब ख़ाने में

कितने माहिर हैं ये सियासत दाँ
ना रवा को रवा बनाने में

मिल गए अब तो चश्मदीद गवाह
देर क्यूँ फ़ैसला सुनाने में

कितने कंजूस हैं ये आलिम भी
इल्म की रोशनी दिखाने में

बा अदब,बा मुलाहिज़ा,हुश्यार
ये सदा दो,"समर" है आने में

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by MAHIMA SHREE on May 2, 2015 at 4:53pm

ये उसी नस्ल के तो हैं,जिनका
नाम है हड्डियाँ चबाने में

वो अलादीन का नहीं था,प हाँ
इक दिया था ग़रीब ख़ाने में

बा अदब,बा मुलाहिज़ा,हुश्यार
ये सदा दो,"समर" है आने में...वाह..शानदार.. उपरोक्त शेर विशेष लगे..बधाई

 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 4:10pm

बहुत खूब ..क्या रंग बिखेरे हैं..हर शेर पर भरपूर दाद क़ुबूल कीजिये 

Comment by वीनस केसरी on May 2, 2015 at 4:05pm

जिंदाबाद ग़ज़ल हुई है ... वाह वा

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 2, 2015 at 3:49pm

बहुत ख़ूब आ. समर साहब, अच्छे अश’आर हुए हैं। दाद कुबूल कीजिए

कृपया ध्यान दे...

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