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ग़ज़ल :- कहीं थे बाज़ू कहीं बदन था

बह्र :- फ़ऊल फ़ैलुन फ़ऊल फ़ैलुन

कहीं थे बाज़ू कहीं बदन था
हिजाब आलूद पैरहन था

निगाह ख़ंजर बनी हुई थी
नज़र हटाई तो गुलबदन था

कहाँ तलक उससे बच के चलते
वो डाली डाली चमन चमन था

समझ के गुलशन की बात की थी
मुराद मेरी तिरा बदन था

सालीक़ा लाओगे वो कहाँ से
सुना है फ़रहाद कोहकन था

हर एक मंज़िल पे देखा जाकर
वही सितारा वही गगन था

भला सा लगता था उन दिनों में
तिरी अदा में जो बांकपन था

अभी "समर" की बिसात क्या है
कभी तुम्हारा वो जान-ए-मन था


"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2015 at 11:29am

जनाब समर साहब, आपने मेरे संशय को सहृदयता से अनुमोदित कर मेरा मान बढ़ाया है. मैं हृदय की अतल गहराइयों से कृतज्ञ हूँ.
सादर

Comment by Samar kabeer on May 2, 2015 at 10:53am

जनाब सौरभ पाँडे जी,आदाब,सारे विद्वान अलग और आप का मुक़ाम अलग,ग़ज़ल जल्दी में पोस्ट कर दी,इस ओर ध्यान ही नहीं गया,ग़ज़ल में आपकी शिर्कत देर से हुई,इस ओर ध्यान दिलाने के लिये आपका शुक्रगुज़ार हूँ |

Comment by Samar kabeer on May 2, 2015 at 10:46am
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on May 2, 2015 at 10:44am
मोहतरमा महिमा श्री जी,आदाब,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया |
Comment by Samar kabeer on May 2, 2015 at 10:41am
जनाब मुकेश श्रीवास्तव जी,आदाब,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2015 at 1:00am

मो. समर साहब, कहन पर तो कुछ कहना ही नहीं है. बस हर शेर अपने साथ बहाये जा रहा है.

हर एक मंज़िल पे देखा जाकर
वही सितारा वही गगन था..................  अब इस महीनी पर खुल के दाद न दूँ तो क्या करूँ !
या, फिर -
समझ के गुलशन की बात की थी
मुराद मेरी तिरा बदन था...................... वल्लाह !

कहन के लिहाज से बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है.


लेकिन चूँकि बहर के चार अर्कान दो-दो की बराबरी पर हैं तो फिर शिकस्तेनारवा’ का ऐब ज़रूर ध्यान में रखना था. जाने क्यों अच्छे-अच्छे विद्वान शाइर आ चुके हैं इस ग़ज़ल पर, मगर मैं किसी की निग़ाह इस ओर पड़ती नहीं देख रहा हूँ.
ग़ज़ल के कई मिसरे, यहाँ तक मतला भी, इस ऐब के शिकार हैं. कृपया देख लीजियेगा.
या मैं ही गलत हूँ ?
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 1, 2015 at 6:28pm
आदरणीय समर कबीर जी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है। शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाये
Comment by MAHIMA SHREE on May 1, 2015 at 6:15pm

कहाँ तलक उससे बच के चलते
वो डाली डाली चमन चमन था...बढ़़िया.बधाई

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on May 1, 2015 at 5:09pm

बहुत बढ़िया आदरणीय समर कबीर जी मेरी हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें सादर

Comment by Samar kabeer on May 1, 2015 at 10:51am
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |

कृपया ध्यान दे...

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