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प्रेम भाव को समर्पित कुछ दोहे ..........(डॉ० प्राची)

स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार 

हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार 

ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप 

हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप 

कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान 

प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान 

भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह ?

सत्य न विस्मृत हो कभी, 'नृप हम, कोष अथाह' !

प्रवहमान निर्मल चपल, उर पाटन सुरधार

कालकूट बंधन मलिन, हरें नद्य व्यवहार 

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2015 at 7:25pm

रचना के भाव आपको पससंड आये और आपका अनुमोदन प्राप्त हुआ 

आपका आभार आ० विजय प्रकाश शर्मा जी 

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on April 29, 2015 at 7:32am

बहुत दिनों बाद इतनी भावपूर्ण रचना का पारायण किया. आ० प्राची जी, आपको बहुत बहुत बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 28, 2015 at 6:17pm

आदरणीय सौरभ जी,

बहुत खूबसूरत सुझाव 

सत्य न विस्मृत हो कभी- 'नृप हम, कोश अथाह’ !..........वाह !

ऐसा ही भाव यहाँ था भी... जिसे इन शब्दों नें पुष्ट किया 

मैं परिवर्तन कर दे रही हूँ... सुझाव के लिए धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2015 at 4:03pm


आदरणीया प्राचीजी, मेरे कहे को अनुमोदित कर आपने मेरी सोच को मान दिया है. मेरी भी समझ यही बन रही थी जैसा कि आपने इस दोहे की व्याख्या में कहा है. लेकिन तथ्य खुल कर संप्रेषित नहीं हो पारहा था. इसी कारण मैंने अपनी बातें साझा कीं.
 
उक्त दोहे का मूल भाव यह है कि हम यदि प्रेमकोश से समृद्ध और हृदय-भाव से नृप हैं तो फिर प्रेम के मानिक-मुक्ताओं की चाहना किसी भिक्षुक की तरह न करें !
इस आलोक में इस दोहे को क्या यों किया जाय  -
 
भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह  ?
सत्य न विस्मृत हो कभी- ’नृप हम, कोश अथाह’ !
 
उपर्युक्त छन्द एक विचार अनुभूत प्रयास मात्र है. आपके विचारों तदनुरूप प्रयास की अपेक्षा बनी है.

सादर

Comment by Sushil Sarna on April 28, 2015 at 3:30pm

स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार
हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार

वाआआह बहुत ही सुंदर और गहन अर्थ को लिए आपके दोहों को नमन , आपकी शाब्दिक प्रतिभा और भावों की उड़ान को सलाम .… इस सुंदर और सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया प्राची सिंह जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 28, 2015 at 2:59pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,

इस अभिव्यक्ति की तार्किकता पर जिन शब्दों में आपने अपनी स्वीकार्यता देते हुए इन्हें अनुभूत सत्य ही कहा है.... उसनें लेखन के प्रति बहुत आश्वस्त किया है. आपकी गुणग्राह्यता के लिए शब्द नहीं ..... बहुत बहुत धन्यवाद

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 28, 2015 at 2:48pm

आदरणीय सौरभ जी 

प्रस्तुतियों के कथ्य तथ्य शिल्प व तार्किकता पर आपकी गहन समीक्षात्मक प्रतिक्रया हमेशा ही लेखन को परिष्कृत करती है.. प्रस्तुति पर जिन शब्दों में आपने समीक्षा की है उसके लिए नत भाव से आपका आभार व्यक्त करती हूँ ..

भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह 

बंधुजनों में बाँट दें, नृप हम! कोष अथाह 

...............आदरणीय,    नृप ही यदि अपने हृदय में व्याप्त अपार प्रेम धन को भूल, खुद को भिक्षुक मान, प्रेम याचना दूसरों से  किये बैठा हो तो ? .... इस भाव को व्यक्त करने की कोशिश की है.....(कि, हम भिक्षुक नहीं हैं...जो किसी अन्य से प्रेम की चाहना रखें और सोचें कि दुनिया हमें प्यार नहीं करती या फिर ये सोचें कि यदि सहचर प्रेम दे तब प्रेम मिले... हमारे हृदय के भीतर जो अपार प्रेम का साम्राज्य है हम उसे ही क्यों ना स्वयं अपने बन्दधूजनों में बाँट दें ) 

यकीनन विचार तो स्वयं में परिपक्व है... शायद प्रस्तुति में सम्प्रेषण के लिए कुछ शब्दों का फेर बदल चाहिए. .................. आप सुझाएँ.

अभिव्यक्ति पर आपकी अनमोल प्रतिक्रया के लिए पुनः धन्यववाद 

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 28, 2015 at 2:26pm

आदरणीय शुज्जू शकूर जी , आ० मिथिलेश वामनकर जी , आ० कृष्णा मिश्रा जी, आ० अखिलेश श्रीवास्तव जी, आ० विजय जी, आ० जितेन्द्र जी , आ० मोहन सेठी जी, आ० नरेंद्र चौहान जी प्रस्तुत दोहावली प्रयास पर आप सबकी अनमोल सराहना व उत्साहवर्धन के लिए हृदयतल से धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 28, 2015 at 12:11pm

आदरणीय प्राची जी , बहुत गहराई से प्रेम को महसूस कर आपने दोहों की रचना की है , एक एक शब्द मेरे लिये सत्य हैं ॥ लाजवाब !! आपको दिली बधाइयाँ आदरणीया ॥ 

स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार 

हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार 

ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप 

हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप 

कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान 

प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान   --- इन तीनो के लिये मेरे शब्द कम हैं , क्षमा कीजियेगा ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2015 at 12:06am

प्रेम का सात्विक स्वरूप छ्न्द-रचना में जिस तार्किकता के साथ शब्दबद्ध हुआ है, वह रचनाकर्म के क्रम में वैचारिक पक्ष की आवश्यकता को सबल करता हुआ है, आदरणीया प्राचीजी.

पहला दोहा निस्संदेह अत्युच्च श्रेणी का है. अन्य दोहॊं का विन्यास भी शुद्ध सात्विक प्रेम को प्रतिष्ठित करता हुआ है. छन्द-रचना का यह उर्वर स्वरूप आश्वस्त करता है कि गहन सोच की नींव पर गढ़ी गयी रचनाएँ कालजयी होती हैं.

प्रस्तुत दोहा विचार के हिसाब से अवश्य कुछ और समय मांग रहा है -
भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह
बंधुजनों में बाँट दें, नृप हम! कोष अथाह

उपर्युक्त छन्द के दोनों पद दो तरह की संज्ञाओं का एक साथ निरुपण कर रहे है. जबकि कर्ता एक ही है. जो भिक्षुक की तरह चाहना में जीता हो, उससे नृप की भावदशा कैसे अपेक्षित है ? आप सोचियेगा, आदरणीया, फिर साझा कीजियेगा. हमसभी लाभान्वित हों.गे

इन शुद्ध दोहों केलिए हार्दिक धन्यवाद .. .

सादर

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