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गीत- भर आए परदेशी छालों से पाँव, चलो लौट चलें.

            गीत

 

                   भर आए परदेशी छालों से पाँव, चलो लौट चलें.

                   दुखियारे तन-मन से गीतों के गाँव, चलो लौट चलें.   

                

                   मितवा रह जाएगा पाँखों को भींच कहीं,

                   उड़ता है क्यों मनवा आँखों को मींच  कहीं.

                   भीतर तक बींध गया मरुथल का पैनापन,

                   अपने ही बिरवा को आँसू से सींच कहीं.

                   रेतीले टीलों पर क्या देखें छाँव , चलो लौट चलें.

 

                  फिर सागर नयनों में खारापन छोड़ गया,

                  धरती को अम्बर तक लहरों से जोड़ गया.

                  मौसम की साजिश पर ऐसे मतभेद हुए ,

                  जाते-जाते माझी ,पतवारें तोड़ गया.

                  फिरसे तूफानों में घिर आई नाव, चलो लौट चलें.

 

                  पलकों की सुधियों से जाने क्या बात हुई,

                  तन-मन सब भीग गया,ऐसी बरसात हुई.

                  सूरज के बदली से टूटे अनुबंध सभी,

                   कांधों पर दिन निकला,आँखों में रात  हुई.

                  कब तक अंधियारों में भटकेंगे पाँव ,चलो लौट चलें.

 

                                        ***********                                    

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Comment by राजेश शर्मा on March 24, 2011 at 4:11pm
धन्यवाद् ,तपन जी.
Comment by Tapan Dubey on March 24, 2011 at 3:41pm
सुंदर गीत, बधाई

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