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ग़ज़ल - गज़ब का छा रहा हूँ मैं (मिथिलेश वामनकर)

1222---1222---1222---1222

 

ग़ज़ल से पा रहा हूँ मैं, ग़ज़ल ही गा रहा हूँ मैं

ग़ज़ल के सर नहीं बैठा, ग़ज़ल के पा रहा हूँ मैं

 

किसी की नीमकश आँखों का तारा हूँ जमानों से

नयन से गीत सा उतरा, गुहर बन गा रहा हूँ मैं

 

यकीं नासेह पर मत कर, भरोसे का नहीं रहबर

मगर कब मानता है दिल, कसम फिर खा रहा हूँ मैं

 

तुम्हारी आरज़ू हूँ मैं, तमन्ना तुम मेरे दिल की

दुआ बन के रही हो तुम, अकीदत सा रहा हूँ मैं

 

जिधर दुनिया हकीक़त की, रवानी है तबीयत की 

पकड़ कर हाथ जीवन का, उधर ही जा रहा हूँ मैं

 

सितारों से भरी इक रात में जो ख्वाब देखा है

फ़क़त उस ख्वाब में तुम हो नुमायाँ या रहा हूँ मैं

 

भुलावा जिंदगी को दे रहा हूँ बस यही कहकर

ज़रा सा जिंदगी ठहरों कि खुशियाँ ला रहा हूँ मैं

 

खयालों ने पसारे पाँव क्यूं औकात से ज्यादा

धुआँ बन के नजारों पर गज़ब का छा रहा हूँ मैं

 

सभी ने लाख समझाया, मुहब्बत रोग है दिल का

निहायत नातवाँ दिल पर, कहर खुद ढा रहा हूँ मैं

 

मुक़र्रर मत कहो गज़लें, उठी बेज़ार दिल से जो

ग़मों को अलविदा मेरा, जहां से जा रहा हूँ मैं

 

अरुज़ी भी नहीं कोई, न शायर हूँ कलामों का

ग़ज़ल आवाज़ देती है, तो कहता- “आ रहा हूँ मैं”

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by दिनेश कुमार on March 16, 2015 at 3:59pm
वाह वाह वाह ..क्या ग़ज़ल कही है भाई मिथिलेश जी। हार्दिक दाद कबूल कीजिए। पहले से आखिरी शे'र तक समाँ बँधा है। बहुत बढ़िया ..!!

ग़ज़ल से पा रहा हूँ मैं, ग़ज़ल ही गा रहा हूँ मैं
ग़ज़ल के सर नहीं बैठा, ग़ज़ल के पा रहा हूँ मैं.......क्या बात है। बहुत खूब

मुक़र्रर मत कहो गज़लें, उठी बेज़ार दिल से जो
ग़मों को अलविदा मेरा, जहां से जा रहा हूँ मैं ......बहुत खूब

लेकिन जिस शे'र ने सीधा सीधा दिल पर असर किया है, वो है ....
अरुज़ी भी नहीं कोई, न शायर हूँ कलामों का
ग़ज़ल आवाज़ देती है, तो कहता- “आ रहा हूँ मैं”..... ऐसा लगता है मेरी ही भावनाओं को आपने शब्द दिये हैं। बहुत सही कहा है। वाह वाह
Comment by Shyam Narain Verma on March 16, 2015 at 2:46pm
क्या बात है .... बहुत उम्दा | बधाई आप को 
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 16, 2015 at 11:40am
भुलावा जिंदगी को दे रहा हूँ बस यही कहकर
ज़रा सा जिंदगी ठहरों कि खुशियाँ ला रहा हूँ मैं
बहुत बढ़िया , सुन्दर, प्रिय मिथिलेश जी , बधाई पूरी ग़ज़ल के लिए , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 16, 2015 at 11:37am

बहुत सुन्दर ग़ज़ल ...सर से पाँव तक तरन्नुम ही तरन्नुम 

हर शेर बोल रहा है  इन दो के तो क्या कहने ---

जिधर दुनिया हकीक़त की, रवानी है तबीयत की 

पकड़ कर हाथ जीवन का, उधर ही जा रहा हूँ मैं

 

सितारों से भरी इक रात में जो ख्वाब देखा है

फ़क़त उस ख्वाब में तुम हो नुमायाँ या रहा हूँ मैं

मुक़र्रर मत कहो गज़लें, उठी बेज़ार दिल से जो

ग़मों को अलविदा मेरा, जहां से जा रहा हूँ मैं-----बहुत मार्मिक शेर 

 

अरुज़ी भी नहीं कोई, न शायर हूँ कलामों का

ग़ज़ल आवाज़ देती है, तो कहता- “आ रहा हूँ मैं”--क्या कहने 

तहे दिल से दाद कबूलें 

 

 

Comment by Shyam Mathpal on March 16, 2015 at 11:12am

Aadarniya Vamankar Ji,

Woh...Woh.... Har Pankti har labj dil ko chu gaya.  Bahut baddhai.

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