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कुंठाओं के झरे पात,
आशाओं का हो सुप्रभात
दफ़न हो घात प्रतिघात
खुशिओं के सदा बहें प्रपात
चैन की आए रात
बची रहे इंसानियत की जात
चलती रहे गीत गजलों की बात
हम समझें सबके जज्बात
खुश्बू भरे मौसम से हो मुलाकात
जख्मी रिश्तों के बदले हालात
जहरीली हवाएँ न करे आघात
कलुषित न हो मन आँगन
सुगन्धित हो यह बरसात
भावनाओं को लग पंख
मिलन की मिले सौगात
बौराए पंछी को मिले मीत
बिछुड़न से मिले राहत

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Shyam Mathpal on March 11, 2015 at 7:25pm

Aadarniya Dr.Shribastav Ji,Maharishi Ji wa Shyam Verma ji aap logon ki hosla afjai ke liye bahut aabhar-Sukriya.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 11, 2015 at 7:06pm

आ० मठपाल जी

आपकी शुभकामनाओ और सौगातो को स्वीकार करते है i आप ऐसे ही आशीष देते रहे i सादर i

Comment by maharshi tripathi on March 11, 2015 at 5:30pm

अच्छी  भावपूर्ण रचना पर ,,आपको हार्दिक बधाई आ.श्याम जी |

Comment by Shyam Narain Verma on March 11, 2015 at 2:54pm
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई 

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