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जला न दे...''जान'' गोरखपुरी

112 212 221 212

बस कर ये सितम के,अब सजा न दे

हय! लम्बी उम्र की तू दुआ न दे।

अपनी सनम थोड़ी सी वफ़ा न दे

मुझको बेवफ़ाई की अदा न दे।

गुजरा वख्त लौटा है कभी क्या?

सुबहो शाम उसको तू सदा न दे।

कलमा नाम का तेरे पढ़ा करूँ

गरतू मोहब्बतों में दगा न दे।

इनसानियत को जो ना समझ सके

मुझको धर्म वो मेरे खुदा न दे।

रखके रू लिफ़ाफे में इश्क़ डुबो

ख़त मै वो जिसे साकी पता न दे।

न किसी काम का है हुनर सुखन

जब दो जून की रोटी, कबा न दे।            (कबा = कपड़े)

लिखता हूँ जिगर में आग को लिए

तुझको शेर मेरा उफ़! जला न दे।

रहने दें सता मत जिन्दगी उसे

परदा ‘’जान’’ तेरा गो हटा न दे।

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:50pm

इसके अनुसार नीचे लिखा  वजन  कैसे शेर के विन्यास में बैठेगी??

112 212 221 212
न तो यूं ज़िन्दगी होगी दुआ न दे
ये तो है जख्म तू ऐसी हवा न दे

ऊपर लिखे मतले के शेर का वजन तो ये होगा--122 212 221 212

मेरे समझने में कुछ गलती हो रही है. तो कृपया स्पष्ट करे सर!सादर

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 10, 2015 at 11:37pm
बस कर ये सितम के,अब सजा न दे
हय! लम्बी उम्र की तू दुआ न दे।
बहुत सुन्दर , बधाई आदरणीय कृष्ण मिश्रा जी , सादर।
Comment by khursheed khairadi on March 10, 2015 at 11:36pm

आ. जान साहब सबब-ए -ख़फ़ीक --दिखने में दो लाम (लघु) जैसे होते हैं किंतु इनका उच्चारण एक साथ होने से इन्हें गाफ़ (गुरु) ही गिनते हैं |उदहारण ...बस ,जब .अब .ख़त .उस ,मुझ ,गर, अप (आपकी ग़ज़ल के पहले रुक्न के सभी अव्वल जुज )....इन्हें 11 के स्थान पर 2 ही बाँधा जायेगा .....यही आदरणीय मिथिलेश जी कहना चाह  रहे हैं|सादर  

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:27pm

आ० खुर्शीद खैरादी सर जी तारीफ़ के लिए आभार! सर! आपके  आलोचना सहित मार्गदर्शन का आकान्छी हूँ!!सादर!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:20pm

आ० shyam mathpal जी  प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:19pm

आदरणीय राज बुन्देली जी खुलेदिल से हैसलाफजई के लिए बहुत बहुत आभार!! शुक्रिया!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:17pm

आ० हरी प्रकाश दुबे जी रचना को आशीर्वाद देने के लिए बहुत बहुत आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:15pm

भाई महर्षि त्रिपाठी जी हौसलाफजाई के लिए तहेदिल से शुक्रिया!!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 10, 2015 at 11:11pm

आ० मिथिलेश सर आपकी बात को मै समझ नही पा रहा हूँ कृपया विस्तार दें!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 10, 2015 at 9:57pm
इस बह्र को पकड़ नहीं पाया मगर वज़्न के हिसाब से विन्यास कुछ यूं होना चाहिए ऐसा मुझे लग रहा है-
112 212 221 212
न तो यूं ज़िन्दगी होगी दुआ न दे
ये तो है जख्म तू ऐसी हवा न दे
भाव अच्छे और सुन्दर है रचना के। बधाई।

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