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एक तरही ग़ज़ल - मैं रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो ( गिरिराज भंडारी )

221     1222     221      1222

 

चिलमन को ज़रा ऊपर , नज़रों से उठा दूँ तो

पर्दों की हक़ीक़त क्या , दुनिया को बता दूँ तो

 

ख़्वाबों में ख़यालों में , जीने का मज़ा क्या है

कुछ रंग हक़ीकत के , आज उसपे चढ़ा दूँ तो

 

ये उखड़ी हुई सांसे , लगतीं हैं बुलातीं सी

उन सांसों में मै अपनीं , सांसें भी मिला दूँ तो

 

नज़रों ने कही थी जो , नज़रों से कभी मेरी

वो बात सरे महफिल , मैं आज बता दूँ तो

 

राहे वफा में फैले , गर ख़ार डराते हैं

वो ख़ार हटा कर मैं , फूलों से सजा दूँ तो  

 

सौ रंग लगाया है , होली में जहाँ तू ने  

मैं रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो.

**************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

 

 

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2015 at 9:24pm

आदरणीय ख़ुर्शीद भाई , आपकी सराहना ने गज़ल का मान बढ़ा दिया , ऐसे ही स्नेह बनाये रखियेगा !! आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2015 at 9:23pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल की सराहना के लिये और आदरणीय उमेश भाई जी की शंका का समाधान करने के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2015 at 9:21pm

आदरणीय उमेश भाई , अगर गलत है तो गलत कहने का , बताने का हक़ है आपको , माफी की बात न किया कीजिये , ये तो वैसे भी सीखने सिखाने का मंच है , और ग़लतियाँ किसी से भी हो सकती है ॥

 आदरणीय जिस मिसरे को आपने इंगित किया है , उसमें कोई ग़लती नहीं है , दर असल उसमे अलिफ वस्ल का उपयोग हुआ है ॥ आदरणीय मिथिलेश भाई विस्तार से समझा चुके हैं , कृपया देख लीजियेगा ॥ गज़ल पर प्रतिक्रिया के लिये समय निकालने के लिये आपका आभारी हूँ । ऐसे ही स्नेह बनाये रखियेगा ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 1, 2015 at 8:57pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है... ये दो शेर ख़ास पसंद आये 

ख़्वाबों में ख़यालों में , जीने का मज़ा क्या है

कुछ रंग हक़ीकत के , आज उसपे चढ़ा दूँ तो

नज़रों ने कही थी जो , नज़रों से कभी मेरी

वो बात सरे महफिल , मैं आज बता दूँ तो

बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर 

Comment by khursheed khairadi on March 1, 2015 at 8:32pm

ख़्वाबों में ख़यालों में , जीने का मज़ा क्या है

कुछ रंग हक़ीकत के , आज उसपे चढ़ा दूँ तो

 

ये उखड़ी हुई सांसे , लगतीं हैं बुलातीं सी

उन सांसों में मै अपनीं , सांसें भी मिला दूँ तो

 

नज़रों ने कही थी जो , नज़रों से कभी मेरी

वो बात सरे महफिल , मैं आज बता दूँ तो

 आदरणीय गिरिराज सर ,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |नेट पर शायद कोई तरही मुशायरा चल रहा है ,इसी मिसरे पर आ. बागी और आपकी ग़ज़लों का दोहरा आनन्द मिल गया है ,,आदरणीय 'जान' गोरखपुरी साहब की ग़ज़ल भी निगाहों से गुजरी है |जो भी हो मंच को तो लुत्फ़ आ रहा है |बहुत बहुत बधाई |सादर अभिनन्दन |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 1, 2015 at 6:52pm

आदरणीय गिरिराज सर, सुन्दर और मनमोहक ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई

मतला बहुत बेहतरीन हुआ है, शुरुआत जब कमाल हो तो ग़ज़ल पढने का आनंद दुगुना हो जाता है.

गिरह का शेर भी बेहतरीन है .... लग रहा है मूल शेर है ... उला और सानी का राबता जबरदस्त 

आदरणीय उमेश जी इस मिसरे को इस तरह पढ़िए-

कुछ रंग हक़ीकत के , आज+उसपे चढ़ा दूँ तो

कुछ रंग हकीकत के, आजुस्प चढ़ा दूँ तो 

गिरिराज सर ने अलिफ़-वस्ल का प्रयोग कर आज उसपे में को पर मात्रा के रूप में लिया है और पे से मात्रा गिराई है 

संभवतः मैं स्पष्ट कर सका  हूँ 

Comment by umesh katara on March 1, 2015 at 5:57pm

सर माफी के साथ गुस्ताखी कर रहा हूँ

कुछ रंग हक़ीकत के , आज उसपे चढ़ा दूँ तो
2     21 12  2    2    2  1  2  2  1  2 2 2 
बहर में नहीं लग रहा अन्यथा न लें

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2015 at 4:25pm

आदरणीय बड़े भाई , आपकी स्नेहिल सराहना के ल्ये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2015 at 4:23pm

आदरणीय नीरज नीर भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2015 at 4:22pm

आदरणीय सोमेश भाई , आपकई स्नेहिल सराहना के लिये बहुत आभार

कृपया ध्यान दे...

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