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सुना सहसा उसने

और दिल बैठ गया

तड़प रहे अंतस में  

नया डर पैठ गया

 

तकिये पर सिर छिपा

विवश वह लेट गया

आंसुओं की परतें अनगिन

दर्द में समेट गया

 

अगले रविवार फिर  

वही मंजर आयेगा

मौन-प्रेम सिसकेगा

तडपकर मर जाएगा

 

एक कन्या बेमन से अनचाहा वर वरेगी

प्यार के शव पर ही मांग वह भरेगी

अभी उसके व्याह का  आमंत्रण आया है

चंद्रमा विलुप्त हुआ, ग्रहण गहराया है

 

सुना सहसा उसने

और दिल बैठ गया

तड़प रहे अंतस में 

नया डर पैठ गया

 

कितने ग्रहण ऐसे भग्न-हृदय में विलसते

राहु कितने चन्द्र और सूर्य नित्य डसते ?

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 3:50pm

प्रिय नीर जी

आपका आभार i

Comment by Neeraj Neer on February 25, 2015 at 3:45pm

इस प्रेम और उत्सव धर्मी समाज की इस विसंगति को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया है, मान्यवर .... हार्दिक बधाई ॥ 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 3:22pm

आदरणीय सौरभ जी

जब आपका आशीष मिलता है तो उसकी बात ही कुछ और होती है i सादर i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 25, 2015 at 12:49pm

संवेदनापूरित शब्दों और सामाजिक व्यवहार की परिणति को सहज शब्द मिले हैं.
हार्दिक बधाई आदरणीय गोपाल नारायनजी.
सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:24pm

 प्रिय जीतू भाई

आपका आभारी हूँ प्रिय i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:23pm

आ० खुर्शीद  भाई

आपका शेर बहुत पुर -असर है----------- 'कानों में इक सिसकी सीसा घोल गई \मुझको अब शहनाई से  डर लगता है' 

वाह वाह --- अति सुन्दर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:21pm

आ ०मिथिलेश जी

आपका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ i  सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:20pm

प्रिय महर्षि त्रिपाठी  जी

अनुगृहीत हुआ प्रिय i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:19pm

आदर0 परी एम श्लोक जी

सादर आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:17pm

 महनीया ऊषा चौधरी जी

आपका सादर आभार i

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