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अब्बाजान के गुजरने के बाद मेरे हिस्से में जो विरासत आयी उसमें पुरानी हवेली के साथ बाबाजान की चंद ट्राफियाँ और मेडल भी थे जिन्हे अब्बुजान हर आने जाने वाले को बड़े शौक से दिखाते थे। मगर हमारे ख्वाबो की शक्ल अख्तियार करती नयी हवेली की सुरत से ये निशानियाँ बेमेल ही थी लिहाजा 'ड्राईंग रूम' से 'स्टोर रूम' का रास्ता तय करती हुयी ये निशानियाँ, जल्दी ही कबाड़ी गफ़ूर चचा की अल्मारियो की शान बन गयी।..........
अब्बुजान की पहली बरसी थी। हम बिरादरी के साथ, अब्बु के इंतकाल के बाद पहली बार आयी नजमा आपा को भी अपनी नयी शानो-शौकत दिखा कर खुश कर देना चाहते थे। बाकी का तो पता नही मगर आपाजान खुश नही लग रही थी।
आखिर उनके वापस लौटने का वक्त भी आ गया।
"आपा शायद आप हमसे खफा है, क्या 'बिदाई' में कुछ कमी रह गयी या पुरानी हवेली को नयी शक्ल देकर हमने गलत किया।" कुछ उदासी से मैंने पूछा।
"जफर।पुरानी इमारत को वक्त के साथ बदलने में कोई हर्ज नही मगर इसमें रहने वाले भी दीवारी सजावटो की तरह बदल जाये ये जरूर अफसोस की बात है।" आपा की आवाज में दर्द था।
"और हाँ जफर, बिदाई का गम मत करना। मेरी 'बिदाई' गफ़ूर चचा ने मुझे भाईजान की 'विरासत' लौटा कर दे दी है।" आपा अपनी बात पुरी करके जा चुकी थी। और मैं बुत्त बना खड़ा रह गया।

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'विरेन्दर वीर मेहता'
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 19, 2015 at 4:55pm

Aadhrniya Omprakash Kshatriya ji , Somesh Kumarji  aur  Rajesh kumariji  aap gunijano dwaara meri rachna par  saarthak pritikirya dekar jo aapne mera hausalla baddaya hai usske liye mai aap logo ka shukargujaa hu.

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 19, 2015 at 4:50pm

आदर्णीया विनय कुमार जी और अर्चना त्रिपाठीजी कथा पर आप लोगो की अमूल्‍य प्रतिकिरया पर मैं आप लोगो का हार्दिक आभारी हूँ!

Comment by विनय कुमार on February 19, 2015 at 12:19pm

बहुत बेहतरीन लघुकथा आदरणीय , आज के भौतिकतावादी युग में ऐसी विरासत कहाँ संजो के रख पाते हैं लोग , बहुत बहुत बधाई..

Comment by Omprakash Kshatriya on February 19, 2015 at 7:39am

लाजवाब लघुकथा . मन में एक कसक पैदा कराती लघुकथा .     बधाई .     शुभकामनाए  ....

Comment by Archana Tripathi on February 18, 2015 at 11:55pm
बेहतरीन लघुकथा,बजुर्गो की वस्तुएं सहेज कर रखना उनके प्रति लगाव को दर्शाता है जिसकी कमी पुत्र में नजर आयी।
बधाई आदरणीय विजेंदर वीर मेहता जी।
Comment by somesh kumar on February 18, 2015 at 8:04pm

 ,वास्तव में ये असम्वेदनशीलता आज के भौतिक जीवन के बढ़ते प्रभाव का कारण हैं \भावनाएं सस्ती और बेमोल हो रही हैं |हर युग अपनी परम्परा से उपलब्धियों से जुड़ाव महसूस करता है और दूसरा काल उसकी अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं |ये द्वंद जितना आधुनिक है उतना ही प्राचीन |

फ़िलहाल रचना पर बधाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 18, 2015 at 7:25pm

मार्मिक ..आज की असंवेदन शील औलाद का बढ़िया चित्र खींचा है लघु कथा में ....बहुत अच्छी लगी लघु कथा ,हार्दिक बधाई आपको वीरेंद्र जी. 

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 17, 2015 at 9:20pm
आदरणीय गिरिराज भंड़ारीजी लघुकथा पर नजर डालने और मेरा हौसला बढाने के लिये आपका शुक्रगुजार हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 8:31pm

बहुत अच्छी लघुकथा रची है आपने ! हार्दिक बधाइयाँ , आदरणीय वीरेन्द्र भाई ॥

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 17, 2015 at 4:05pm

Priy Mitilesh Vaamankar Bhai ji katha par sundar pratikirya aur prothsaahan ke liye aap ka bahut bahut aabhaar.

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