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माँझी ( एक कुण्डलिया छंद) ... डॉ० प्राची सिंह

माँझी मंजिल से पृथक डालो नहीं पड़ाव

भँवर भरे मझधार में क्यों उलझाते नाव?

क्यों उलझाते नाव, लहर पथ कहाँ उकेरे

उथल-पुथल संघर्ष, लाख चौरासी फेरे ,

एकल करो विमर्श! बात करनी क्या साँझी?

क्या होगा परिणाम, राह भटके जो माँझी?

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2015 at 7:13pm

प्रस्तुति के भाव व कथ्य पर अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० संजय कुमार झा जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2015 at 6:51pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

मन मांझी अगर भाव भंवर में जीवन की नाव उलझा दे तो लक्ष्य से भ्रमित हो ही जायेगी न गति...इसी भाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है... आपको यह प्रयास सार्थक लगा ..आपकी आभारी हूँ 

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2015 at 6:49pm

इस कुण्डलिया छंद की सराहना कर उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया राजेश जी 

Comment by SANJAY KUMAR JHA on August 7, 2015 at 4:06pm

एक - एक शव्द  माला की तरह है !! अद्भुत !!

एक - एक शव्द ,शव्द बाण की तरह अचूक
चित्त कर रहा चिंतन, होकर इस पर मूक
होकर इस पर मूक , पड़ा हूँ चिंतन में
उठा रहा अनेको प्रश्न, मेरे जेहन में
का से करूँ विचार ? पूछूँ मैं का से रास्ता एक
सब चले हैं अपने डोर, नहीं कोई इतना सस्ता एक


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2015 at 10:24am

आदरणीया प्राची जी , अपने स्व को ,  न भटकने की दी गई समझाइश  बहुत सार्थक और एक आवश्यक समभाइश लगी । उसे पाने के लिये एक पर टिके रहना परम आवश्यक है । इस आध्यात्मिक सोच के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 20, 2015 at 8:41pm

बहुत सुन्दर कुण्डलिया लिखी है प्रिय प्राची बहुत- बहुत बधाई. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 19, 2015 at 7:49pm

आ० हरि प्रकाश दूबे जी 

रचना का कथ्य और कथ्यसान्द्रता आपसे अनुमोदन पा सकी ..यह मेरे लिए आश्वस्तकारी है 

आपका आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 19, 2015 at 7:48pm

आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

प्रस्तुति की अंतर्धारा पर आपकी टिप्पणी अभिव्यक्ति की संप्रेषणीयता के प्रति आश्वस्त करती सी है.. वस्तुतः इसमें एक सजग इकाई द्वारा मनस व बुद्धि के inner dialogue को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है.

अभिव्यक्ति की सराहना और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 19, 2015 at 7:40pm

आदरणीय डॉ० विजय शंकर जी, आ० लक्ष्मण प्रसाद जी, आ० डॉ० आशुतोष जी प्रस्तुत अभिव्यक्ति को स्वीकारने और शुभकामनाएं प्रेषित कर उत्साहवर्धन करने के लिए  हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 19, 2015 at 7:35pm

आदरणीय मिथिलेश जी 

इस प्रस्तुति पर कामायनी जैसी उत्कृष्ट कृति की कुछ पंक्तियों को साँझा कर आपने प्रस्तुत प्रयास को मान दिया है.. तहे दिल से आभारी हूँ 

सादर 

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