तू प्यार की राहों में चलना
बस प्यार ही जिंदगी होवे
तू यार तो सच्चा न हो
पर प्यार तो सच्चा होवे,-2
तू देख के लगे फकीरा
पर दिल का फ़कीर न होवे,
तू यार तो सच्चा न हो
पर प्यार तो सच्चा होवे,....2
सपनो की इस जिंदगी में
रूप सुहाने लगते हैं,
प्यार बिना कहीं चैन न आवे
ना ही दिन ये कटते हैं,
इन सुहानी रातों में
सजना साकी लगतें हैं,
रात भर कभी नीद न आवे
कभी दिन में सपने सजते हैं..2
तू भूल जाए जग सारा
पर इश्क का अश्क न खोवे,
तू देख के लगे फकीरा
पर दिल का फ़कीर न होवे,..2
तू प्यार की राहों में चलना
बस प्यार ही जिंदगी होवे !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सर , विधा का महत्व बहुत है , यही तो इस मंच की श्रेष्ठता है , और उससे भी बड़ी बात की यहाँ पर आप जैसे गुनी जन बात सुनते भी है ,और समझाते भी है ,..ये शेर तो बस भाव को समझाने के लिए था ,बाकी गीत ही टैग्स मैं आता है ..बाकी क्षमाँपार्थी हूँ अगर कुछ अज्ञानता वस् लिख दिया हो तो ! सादर
//यह स्वत: सफूर्त भावनाओं का सहज उच्छलन है ,इसमें भावना की प्रधानता एवम् मूल में गान, अथवा गेयता की धारणा जुडी हुई है ,यहाँ गीत ,संगीत और काव्य में विभेद की मात्रा नगण्य हो जाती है ...गीत का कोमल मन भावना के जिस रमणीय आकाश में विचरण करता है वहाँ जटिल ,क्रत्रिम विधानों की जरूरत नहीं रह जाती है .....”इश्क को दिल में जगह दे ...ईल्म से शायरी नहीं आती ! अपनी बात समझा पाया हूँ शायद..... सादर !//
ऐसा है क्या ? फिर तो हम लोग इस मंच पर विधा-विधा की रट लगा कर बकवास बाजी से अधिक कुछ कर ही नहीं रहे, यदि इल्म से शायरी नहीं आती तो बगैर इल्म शायरी हो जाती है ?
क्या कहूँ, क्या ना कहूँ, अभी कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ, एक बात जानना चाहता हूँ, इस प्रस्तुति को आप "गीत" से ही क्यों वर्गीकृत किये ?
अंगरेजी- साहित्य में “लिरिक” (गीति काव्य ) का उद्गम यूनान (ग्रीक) की गीत परंपरा से माना जाता है ,जिसके दो विभेद प्रचलित थे ! प्रथम विभेद के अंतर्गत उन गीतों की गणना ,जिन्हें ‘मेलिक’ अथवा ‘लिरिक’ कहा जाता था और जिसका गान व्यक्ति –विशेस के द्वारा ‘लायर’ नाम के वाद्य –यन्त्र पर होता था ! द्वितीय विभेद के अंतर्गत समूह गान की परिपाटी थी , जिसे एकाधिक व्यक्ति ताल वाद्य और संभवत: न्रत्य के साथ भी प्रस्तुत करते थे ! अंगरेजीकी लिरिक कविता का सम्बन्ध यूनानी गीत के प्रथम विभेद से माना जाता है ! अपने यूनानी उद्गम से सम्बन्ध –निर्वाह करते हुए ,लिरिक (गीति –काव्य ) आज भी उसकी दो विशेषताओं को समाहित किये हुए ! एक तो यह कि उसमें एकांतिक भाव-संवेग की अभिवयक्ति होती है –व्यक्ति विशेष की विशिष्ट भावानुभूति का उच्चछलंन होता है !दुसरे यह कि उसकी संरचना गीतात्मक होती है ! कालांतर में,,रचनागत शब्दों मै अंतर्निहित आभ्यंतर संगीत अथवा रागतत्व की खोज हुई ! अस्तु: गीतिकाव्य की कलात्मक सर्जना का युग आरम्भ हुआ ! अंग्रेजी –कविता में इसका श्रेय शैली ,कीट्स, बाईरन ...हिंदी में प्रसाद,निराला ,पंत और “बच्चन” जैसे सुकवियों को जाता है !.......सादर !
आदरणीय सौरभ सर निवेदन है कि आप लिरिक-पोएट्री के विषय में बताएं .... ?
पश्चिम का लिरिक-पोएट्री यानी गीतकाव्य या गेय-काव्य, भारतीय गीतकाव्य से अलग है क्या ? मेरे हिसाब से तो हर कवि/ रचनाकार चाहता है कि उसकी रचना संगीत की सीमा को स्पर्श कर जाए... चाहे वो कविता हो, गीत हो, ग़ज़ल हो नज्म हो या कोई छंदमुक्त या छंदमयी रचना. या कहे कि रचना, शब्द-धर्मी हो, न हो पर संगीत-धर्मी होना, मन को अधिक भाता है. //भावना की प्रधानता एवम् मूल में गान// यह शायद सूरदास, मीरा आदि के भजनों या पदों में देखने को मिलता है, जिसमे पदों की गेयता को ही सबसे अधिक महत्व दिया गया है. उन कृष्ण लीला या अन्य पदों में देखें तो आपने सही कहा -//गीत ,संगीत और काव्य में विभेद की मात्रा नगण्य हो जाती है ...गीत का कोमल मन भावना के जिस रमणीय आकाश में विचरण करता है वहाँ जटिल ,क्रत्रिम विधानों की जरूरत नहीं रह जाती है// लेकिन कितनी अजीब बात है कि जिस गेयता को जटिल ,क्रत्रिम विधानों की जरूरत नहीं होती वो गेय लय भी सात सुरों के जटिल विधान में बंधी होती है. हम जो धुन या लय गुनगुनाते और गाते है उसे सरगम विधान में लिखे तो मात्र सात सुर वो गज़ब की जटिलता पैदा कर देते है कि दिन में तारे दिखाई देने लगते है. सुरीला गाना माने सुर विधान का पालन और बेसुरा गाना माने सुर विधान को नजरंदाज करना. ये तो ईश्वर की माया है कि मानव को सुर की समझ उसके अचेतन/ अवचेतन मन में भी उपलब्ध करा दी, हम कोई भी गीत, बिना उसका संगीत विधान जाने भी कितनी सहजता से गा लेते है. पूरी प्रकृति ही संगीतमय है, आकाश-क्षेत्र वायु भूमि जल-प्रवाह अग्नि जीव जंतु पौधे सभी में सुरीला भावपूर्ण विधान है. खैर ... आपने भी खूब कहा- ”इश्क को दिल में जगह दे गालिब/इल्म से शायरी नहीं आती"
पश्चिम की "लिरिक पोएट्री" तो कभी पढ़ नहीं पाया था, आपके बताने के बाद आज पहली बार कुछ "लिरिक पोएट्री" पढ़ी. वैसे तो बहुत कम समझ आई लेकिन विलियम शेक्सपियर की ये "लिरिक पोएट्री" पढने में कुछ कुछ समझ भी आई और अच्छी भी लगी -
Shall I compare thee to a summer's day?
Thou art more lovely and more temperate.
Rough winds do shake the darling buds of May,
And summer's lease hath all too short a date.
Sometime too hot the eye of heaven shines,
And often is his gold complexion dimmed,
And every fair from fair sometime declines,
By chance, or nature's changing course untrimmed.
एक नई विधा (मेरे लिए नई) से परिचित कराने के लिए बहुत बहुत आभार , हार्दिक धन्यवाद ....सादर
आदरणीय मिथिलेश जी ,दरअसल इस तरह के सर्जन पर पश्चिम के "लिरिक पोएट्री" का प्रभाव होता है ! सादर !
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी क्षमा करें ...मैं आदरणीय बागी सर के इस कथन //मैं बहुत गहराई से इस विधा को तो नहीं जानता// के मद्दे नज़र मैं इसे कोई विधा अथवा लोक विधा समझ के पूछ रहा था. सादर
यह स्वत: सफूर्त भावनाओं का सहज उच्छलन है ,इसमें भावना की प्रधानता एवम् मूल में गान, अथवा गेयता की धारणा जुडी हुई है ,यहाँ गीत ,संगीत और काव्य में विभेद की मात्रा नगण्य हो जाती है ...गीत का कोमल मन भावना के जिस रमणीय आकाश में विचरण करता है वहाँ जटिल ,क्रत्रिम विधानों की जरूरत नहीं रह जाती है .....”इश्क को दिल में जगह दे ...ईल्म से शायरी नहीं आती ! अपनी बात समझा पाया हूँ शायद..... सादर !
आदरणीय हरिप्रकाश जी, भाव संगीत / भाव गीत इस विधा को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ .... सादर
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर, रचना पर उत्साहवर्धन हेतु , आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! सादर !
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