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     वह चालीस वर्ष का हट्टा –कट्टा जवान था I बस में मेरी खिड़की के करीब आया I डबडबायी आँखों से मेरी ओर देखा –‘बाबू जी मेरी माँ अस्पताल में दम तोड़ रही है, उसकी दवा लेने गया था, फकत इक्कीस रुपये कम पड़ गए है I बाबू जी आप मेहरबानी कर दे तो मेरा माँ शायद बच जाय I अल्लाह आपको नेमते देगा I’

      उसकी आँखों से आंसू  छलक पड़े I मुझे तरस आ गया I मैंने उसे रुपये दे दिए I वह दुआ देता आँखों से ओझल हो गया I  

      किसी कारण से मेरी बस वही रुकी रही I इतने में दूसरी बस आ गई I मैंने देखा वही व्यक्ति फिर हठात प्रकट हुआ i उसकी आँखे फिर डबडबाई I वह दूसरी बस के एक मुसाफिर को संबोधित कर बोला- बाबू जी मेरी माँ अस्पताल में दम तोड़ रही है------

 

 (मौलिक /अप्रकाशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 21, 2014 at 8:20pm

अर्चना तिवारी  जी

सादर आभार i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 21, 2014 at 6:23pm

ऐसी बहुत सी जगह होती हैं जहाँ इंसान सहानुभूति के माध्यम से अपनी मक्कारी सिद्ध कर ही जाते हैं. बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी, सर . बधाई स्वीकारें

Comment by harivallabh sharma on December 21, 2014 at 4:19pm

भावुक होना मनुष्य की कमजोरी है..वहीँ नाटकीयता उसके औजार हैं..किस जरूरतमंद को हम हाथ खींच लेंगे, अब कठिन हो गया...सुन्दर यथार्थ परक लघुकथा हेतु बधाई आदरणीय.

Comment by somesh kumar on December 20, 2014 at 7:56pm

ये झूठा सच हर सड़क ,हर बस ,हर मन्दिर पे दिख जाएगा ,मगरमच्छ असली सम्वेदनाओं को निगल रहे हैं |सुंदर विषय उठाया आप ने आ.

Comment by Hari Prakash Dubey on December 20, 2014 at 6:24pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, एकदम सत्य, बाकी आपका लेखन लाजवाब है ,हार्दिक बधाई !

Comment by Shyam Narain Verma on December 20, 2014 at 5:14pm

अति सुन्दर लघु कथा। बधाई।

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