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मुक्त हो गयी आत्मा

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

स्तब्ध रह गयी निशा

मृत शरीर के क्रन्दनो से

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

दूर हो गयी आत्मा

अतीत के स्पन्दनो से

राख हो  गया शरीर

जलते हुये चन्दनों से

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

शरीर आसक्त हो गया

प्रिया में अंतर्नयनों से

आत्मा छल गयी उसे

अनासक्ति के प्रपंचों से

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

हृदय मस्तिष्क और प्रार्थना

ध्यान योग और साधना

रोक सकी न प्रयत्नों से

बांध सकी न बन्धनों से

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित”

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on November 11, 2014 at 9:19pm

आदरणीय श्री गणेश जी"बागी" , श्री डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी ,श्री सोमेश कुमार जी ,श्री सुशील सरना  जी,  श्री  मोहिंदर कुमार जी, आप सभी का सादर अभिवादन, सुझावों के लिए  आपका हार्दिक आभार, सत्य तो यह है की यह कुछ पुरानी डायरी के पन्नों से निकली रचनायें हैं ,बहुत श्रेष्ठ नहीं हैं ,मगर इस मंच पर एक अपनापन महसूस हो रहा है ,आप सभी विद्वान साथियों से संवाद का मौका मिल रहा है ,इस रचना मैं शरीर पुरुष और आत्मा स्त्री के रूप मैं अभिव्यक्त है तथा शरीर रूपी प्रेमी जब अशक्त हो जाता है तो आत्मा अपने अनासक्त स्वभाव के कारण उसे छोड देती है ,किसी और को अपना लेती है ,भारतीय दर्शन इसीलिए अनासक्त होने पर जोर देता है ,आप सभी को प्रणाम !


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 11, 2014 at 8:06pm

//स्याह पड गया शरीर

जलते हुये चन्दनों से//

स्याह पड़ेगा या राख हो जाएगा


भावों का सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई आदरणीय।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 11, 2014 at 4:16pm

आत्मा चिर मुक्त है  i शरीर धारण करना और छोड़ना और धारण करना उसकी चर्या है i जीव ब्रह्म का अंश  होकर भी कई मायने में ईश्वर से भिन्न भी  है i ऐसे भारतीय दर्शन कहते है तभी मुक्ति पाने तक वह भव चक्र में फंसा रहता है i आपकी कविता आपकी शैली में अच्छी बन पडी है i  स्वागत है i

Comment by somesh kumar on November 11, 2014 at 3:47pm

ye mukti hi chi aur shshvt sty hai ,baki sb ek bhrmjaal,ek khela ,sunder kavita ke lie saadhuvaad

Comment by Sushil Sarna on November 11, 2014 at 12:10pm

आदरणीया  Hari Prakash Dubey   जी सुंदर,भावपूर्ण और एक दार्शनिक रचना ।आदरणीय क्षमा सहित प्रथम दो बंध सुंदर और प्रवाहपूर्ण लगे पर आगे के दो बंधों में प्रवाह उतना सहज प्रतीत नहीं हुआ जितना प्रथम दो में।  फिर भी इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई।  

Comment by Mohinder Kumar on November 11, 2014 at 11:29am

आदरणीये दूबे  जी  आत्मा तो सदा मुक्त रहती है  बस हमारा यह नश्वर शरीर ही साँसारिक भोगोँ मेँ विलप्त रहता है, मोह पाश मेँ बधाँ रहता है और आत्मा की आवाज को दबा देता है.  भावपूर्ण रचना के लिये बधाई. 

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