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जो प्रिय है -डा० विजय शंकर.

कोई सच प्रिय है
कोई सच अप्रिय है
कोई कोई तो कटु है |
सच तो सच है ॥
सच है, इसीलिये तो सच है |
और इसीलिये तो, है ॥

झूठ वो है जो नहीं है ,
फिर भी है , क्योंकि
हम मान रहे हैं, कि है,
हम इसलिए मान रहे हैं
क्यों कि वह हमको प्रिय है ॥

हमको क्या प्रिय है,
वो झूठ , जो है नहीं ,
जो है नहीं , कहीं नहीं
वह हमको प्रिय है ॥
जो है नहीं वो हमको
प्रिय कैसे हो सकता है ||

वो क्या है जो हमें
प्रिय है और है नहीं ,
वो कौन सी चाहत है ,
वो कौन सी कल्पना है ,
हम उसे साकार क्यों नहीं कर लेते हैं ,
क्यों नहीं उसे सत्य का रूप दे देते हैं ,
क्यों नहीं हम प्रिय को सत्य कर लेते हैं ,
प्रिय को हम सत्य क्यों नहीं कर लेते हैं

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on November 4, 2014 at 5:33pm

आदरणीय छाया शुक्ला जी ,आपने रचना के दार्शनिक भाव को स्वीकार किया , आभार.
आपकी सद्भावनाओं के लिए सादर धन्यवाद।

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 4, 2014 at 5:28pm

आदरणीय डॉo प्राची सिंह जी , असत्य से लिपटे रहने और अपने भ्रम को स्थापित करने के प्रयासों से तो यही अच्छा है कि जो प्रिय एवं इच्छित उसे ही लोग साकार करने में लोग लगें . आपने रचना के दार्शनिक भाव को स्वीकार किया। आभार। 
बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद।

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 4, 2014 at 5:20pm

आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी ,आपने रचना के दार्शनिक भाव को स्वीकार किया , आभार.
आपकी सद्भावनाओं के लिए सादर धन्यवाद।

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 3, 2014 at 6:42pm

रचना को स्वीकार करने एवं पसंद करने के लिये आभार आदरणीय आलोक मित्तल जी.
प्रशस्ति के लिए सादर धन्यवाद।

Comment by Alok Mittal on November 3, 2014 at 4:49pm

बहुत सुंदर रचना है आपकी डॉ. विजय जी ...

कोई सच प्रिय है
कोई सच अप्रिय है
कोई कोई तो कटु है |
सच तो सच है ॥
सच है, इसीलिये तो सच है |
और इसीलिये तो, है ॥..........बहुत सुंदर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 3, 2014 at 11:36am

आदरणीय डॉ० विजय शंकर 

प्रिय को ही सत्य बना लेने के रहस्य को जान पाने की जुगुप्सा के चलते सत्य और असत्य को विवेचित करने का एक दार्शनिक प्रयास हुआ है 

हार्दिक बधाई 

Comment by khursheed khairadi on November 3, 2014 at 10:35am

क्यों नहीं हम प्रिय को सत्य कर लेते हैं ,
प्रिय को हम सत्य क्यों नहीं कर लेते हैं

आदरणीय विजयशंकर जी ,अच्छी दार्शनिक रचना हुई है |सादर अभिनन्दन 

Comment by Chhaya Shukla on November 1, 2014 at 6:30pm

दार्शनिक भाव खूब मंथन के साथ कथ्य को प्रमाणित किया है अपने "सुनिए सबकी करिये मन की याद दिला गया " साधुवाद आपको आ.  विजय शंकर जी सादर नमन !

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 1, 2014 at 4:03pm

निसंदेह , आपको धन्यवाद , आपने उस गहराई तक जाने का समय दिया और रचना के मूल भाव को स्वीकार किया। आभार।
आपकी बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी।

Comment by Sushil Sarna on November 1, 2014 at 1:36pm

झूठ और सत्य के दार्शनिक भावों को आपने बड़ी ख़ूबसूरती से इस रचना में चित्रित किया है।  पाठक रचना की गहराई तक स्वयं को ले जाने की चेष्टा करता है यही इसकी सफलता है।  हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ विजय शंकर जी। 

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