For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

दियालिया उजास दे (नवगीत) // --सौरभ

आँक दूँ ललाट पर
मैं चुम्बनों के दीप, आ..
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे..

संयमी बना रहा
ये मौन भी विचित्र है
शब्द-शब्द पी
करे निनाद-ब्रह्म का वरण..  
कोंपलों में बद्ध क्यों
सुगंध देह से उमग ?
आ, सहज उघार दूँ
मैं विन्दु-विन्दु
आवरण..

रात्रि की उठान, किन्तु

स्वप्न शांत-थिर रहें..
भंगिमा से
रोम-रोम
तोष का विभास दे ! 

रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे.. .

श्रम सधे,
समर्थ हो..
प्रयास की लहर-लहर..
अर्थ स्वेद-धार का
गहन मगर विकर्म-सा !
ज्योति-शृंखला बले
शिरा-शिरा
सिहर-सिहर..
कम्पनों से व्यक्त हो
प्रगाढ़ प्रेम
नर्म-सा !

लालिमा प्रभात की
वियोग की कथा रचे
किन्तु, ’मावसी निशा
सुहाग का
समास दे ! 

रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे.. .
*********************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 1162

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 5, 2014 at 4:04pm

लालिमा प्रभात की
वियोग की कथा रचे
किन्तु, ’मावसी निशा
सुहाग का
समास दे !
यूँ तो पूरी कविता ही सुन्दर है, पर ये पंक्तियाँ अद्वितीय हैं , बधाई, आदरणीय सौरभ पांडे जी।

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on October 5, 2014 at 3:11pm

 वाह सौरभ जी, कमाल! कल-कल करते हुए बहते जल सा प्रवाहपूर्ण नवगीत।

बधाई

-जगदीश पंकज

Comment by Sulabh Agnihotri on October 5, 2014 at 12:50pm

आँक दूँ ललाट पर
मैं चुम्बनों के दीप, आ..
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे..
अद्भुत अभिव्यंजना ! जितनी तारीफ की जाए कम है।

 

संयमी बना रहा
ये मौन भी विचित्र है
शब्द-शब्द पी
करे निनाद-ब्रह्म का वरण..
कोंपलों में बद्ध क्यों
सुगंध देह से उमग ?
आ, सहज उघार दूँ
मैं विन्दु-विन्दु
आवरण..

रात्रि की उठान, किन्तु
स्वप्न शांत-थिर रहें..
भंगिमा से
रोम-रोम
तोष का विभास दे !
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे.. .

मुखड़े ने अनुभूतियों की जिस गहनता को चमत्कारी रूप से उकेरा था उसे और भी तीव्रता प्रदान करता बंद ....

वाहहहहहहहहहहहह !

 

श्रम सधे,
समर्थ हो..
प्रयास की लहर-लहर..
अर्थ स्वेद-धार का
गहन मगर विकर्म-सा !
ज्योति-शृंखला बले
शिरा-शिरा
सिहर-सिहर..
कम्पनों से व्यक्त हो
प्रगाढ़ प्रेम
नर्म-सा !

लालिमा प्रभात की
वियोग की कथा रचे
किन्तु, ’मावसी निशा
सुहाग का
समास दे !

ज्योति श्रंखला बले - शिरा-शिरा, सिहर-सिहर .... बंधुवर शब्द नहीं मिल रहे हैं, ‘बले’ का क्या मौके पर प्रयोग हुआ है !


आदरणीय पूरा गीत इतना प्रवाहमय है कि बस ....
शब्दों के साथ ऐसी अंतरंग मित्रता ... शब्दकोष तैयार खड़ा है, कोई भी शब्द बुलाना या पकड़ कर लाना नहीं पड़ता .. अपनी जगह पहचान कर उचित शब्द खुद ही भागा चला आता है .. ऐसी मित्रता कम ही देखने को मिलती है !
बहुत-बहुत बधाई !!!!
मान्यवर इस गीत को मैं अपने पेज ‘हस्ताक्षर’ पर काॅपी कर अपने पास सुरक्षित कर रहा हूँ।

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on October 5, 2014 at 11:57am

क्या बात है ज़िन्दाबाद। बहुत ही प्रवाहमयी सार्थक रचना है मोहतरम। 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
5 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
19 hours ago
Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Nov 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service