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गिरने पे चोट नहीं लगती--डा० विजय शंकर

आजकल गिरने पे चोट नहीं लगती , तभी तो
लोग कहीं भी कितना भी गिरने को तैयार रहते हैं
चोट लगेगी भी कैसे , जब भी कोई गिरता है ,
कहीं भी गिरता है , पहले से वहां
काफी गिरे हुए लोग होते हैं ,
जो उसको गिरते ही हाथों हाथ ले लेते हैं ,
उसे चोट लगने ही नहीं देते हैं
उसके बाद तो और गिरने का डर भी नहीं रहता
गिरे को और क्या गिरने का डर होगा
बस गिरे रहिये , पड़े रहिये , रेंगते रहिये
ऊंचाई में, थोड़ा ऊपर जाने में
हमेशा गिरने का डर बना रहता है
कौन कब, कौन सी डोर खींच दे
और आप धड़ाम से गिर पडें
उस समय कोई हाथों हाथ नहीं लेगा
क्योंकि आप गिराये गए हैं
स्वयं नहीं गिरे हैं , अंतर है .
उठायेगा कोई क्या , हसेंगें सब
आजकल लोग ऊंचाई की बात ही नहीं करते हैं
नीचाई की ही बात करते हैं
कहते हैं जमीन पर सब बराबर होते हैं
सब के पाँव जमीन पर ही होते हैं ,
साथ , सहयोग , समर्थन सब होता है ,
ऊपर देखो, अजब विषमता है
हरेक सर अलग अलग ऊंचाई पर होता है
इसीलिये ऊंचे लोगों में कोई एका नहीं होता है
गिरे हुए लोगों में बड़ी एकता होती है
वैसे भी आप जितना ऊपर ऊंचे जायेगें
अकेले होते जायेंगें
आज के युग में अकेला होना ,
राम राम , राम , डर लगता है .
वैसे सुनते हैं , शेर - बाघों - चीतों
की प्रजाति को बचाने के प्रयास होते हैं
पर खतरा तो रहता ही है , अकेले को

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 25, 2014 at 6:22pm
आदरणीय महिमा श्री जी , रचना का इतना विशद मूल्यांकन करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
Comment by MAHIMA SHREE on August 25, 2014 at 4:53pm

क्या बात है !!! बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति .. व्यंग की धार लगातार ..हँसी भी भी आई औ सोचने पे विवश भी कर दिया ..क्या  हो गया है हमारे समाज को ..वैसे देखा जाए तो सिर्फ कलयुग में नहीं हर युग में नैतिकता को ताक पे रखा गया अपनी व्यक्तिगत  आकाँक्षाओं के चलते .. सादर हार्दिक बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 23, 2014 at 2:45pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय मीना पाठक जी
Comment by Meena Pathak on August 23, 2014 at 1:55pm

बहुत सुन्दर और सार्थक रचना ..हार्दिक बधाई आप को | सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2014 at 11:02pm
आदरणीय सौरभ पांडेय जी , आपके प्रसंशनीय शब्दों से रचना का मान बढ़ रहा है , मेरे लिये प्रसन्नता इसमें भी है कि रचना आपको अच्छी लगी . कृपया उत्साह बढ़ाते रहिये . बहुत बहुत धन्यवाद , सादर .
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2014 at 10:39pm
आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी आपके प्रसंशनीय शब्द रचना का मान बढ़ा रहे हैं, मेरे लिए अधिक प्रसन्नता इसमें है कि रचना आपको अच्छी लगी . उत्साह बढ़ाते रहिये . बहुत बहुत धन्यवाद , सादर .

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2014 at 10:17pm

अद्भुत कविता !  इसके अलावा और कुछ नहीं कहूँगा, आदरणीय. 

सही बात तो ये है कि इस मंच पर आपकी इतनी सशक्त और इतनी सार्थक कोई पहली कविता पढ़ रहा हूँ !

हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2014 at 9:26pm

विजय जी

ऐसी मौलिक सोच कहाँ से ले आये ?

अनुपम, अद्वितीय , अनिवर्चनीय , अद्भुत i

कहीं भी गिरता है , पहले से वहां
काफी गिरे हुए लोग होते हैं ,
जो उसको गिरते ही हाथों हाथ ले लेते हैं ,
उसे चोट लगने ही नहीं देते हैं
उसके बाद तो और गिरने का डर भी नहीं रहता
गिरे को और क्या गिरने का डर होगा
बस गिरे रहिये , पड़े रहिये , रेंगते रहिये

ऊपर देखो, अजब विषमता है
हरेक सर अलग अलग ऊंचाई पर होता है
इसीलिये ऊंचे लोगों में कोई एका नहीं होता है

 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2014 at 12:13pm
आपको बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय लक्षमण प्रसाद धामी जी
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 22, 2014 at 11:22am

आदरणीय भाई  विजय शंकर जी इस विचारोत्तेजक रचना के लिए कोटि कोटि बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

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