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" बाऊ , आज त पेट भर खाए के मिली न " लखुआ बहुत खुश था । आज ठकुराने में एक शादी थी और लखुआ का पूरा परिवार पहुँच गया था । पूरा दुआर बिजली बत्ती से जगमग कर रहा था और चारो तरफ पकवानों की सुगंध फैली हुई थी ।
" दुर , दुर , अरे भगावा ए कुक्कुर के इहाँ से " , चच्चा चिल्लाये और दो तीन आदमी कुत्ते को भगाने दौड़ पड़े । लखुआ भी डर के किनारे दुबक गया । तब तक उन लोगों की नज़र पड़ गयी इन पर " ऐ , चल भाग इहाँ से , अबहीं त घराती , बराती खईहैं , बाद में एहर अईहा तू लोगन " । फिर याद आया कि पत्तल भी तो उठवाना है इनसे तो बोले " अच्छा , जब लोग खाना खा लिहं , तब पतरी उठा के फेंक दिहा , अउर एकदम सफ़ाई से , गन्दा न रहे "। अब लखुआ फिर से थोड़ा आगे बढ़ा तो बाप ने टोका " ढेर आगे मत जा , अबहीं टाइम हौ " ।
धीरे धीरे रात गहराने लगी , लखुआ के पेट में भूख से मरोड़ें पड़ रहीं थीं । खाना शुरू हुआ , बीच बीच में कुत्ते थोड़ा आगे बढ़ जाते और उनको भगाने वाले चिल्ला के भगा देते । अचानक एक कुत्ता एकदम से पंगत के बीच में पहुँच गया , और शोर मचा कि भगाओ इसे । गुस्से में एक आदमी ने लाठी उठाई और उसे भगाते हुए खींच के मारा । फिर एकदम से आवाज आई " अरे बाऊ " , और लखुआ सर पकड़ के गिर गया । लाठी सीधे उसके सर पे लगी थी और वो वहीँ पर ढेर हो गया ।

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on August 3, 2014 at 11:47pm

आभार आमोद कुमार श्रीवास्तवजी..

Comment by विनय कुमार on August 3, 2014 at 11:45pm

आभार महिमा श्री जी , ये एक कड़वी सच्चाई है समाज की..

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 3, 2014 at 9:27pm

मार्मिक चित्रण!

Comment by ram shiromani pathak on August 3, 2014 at 8:11pm

आज भी ऐसा होता है मैं स्वयं इसका गवाह हूँ
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय।हार्दिक बधाई आपको। । सादर

Comment by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:46pm

मर्मस्पर्शी ... 

Comment by MAHIMA SHREE on August 3, 2014 at 3:51pm
उफ़ बेहद मार्मिक पर सत्य तो है जिसे मुहं नहीं मोड़ा जा सकता ... हमारे समाज का ये कला चेहरा कब बदलेगा पता नहीं हार्दिक बधाई आदरणीय सादर
Comment by विनय कुमार on August 3, 2014 at 1:26pm

आभार डॉ विजय शंकरजी , ये आज भी हक़ीक़त है , हम सब को मिलकर ही इसे मिटाना होगा ..

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2014 at 10:25am
बहुत मार्मिक चित्रण है . अजीब कहानी है इस देश की किसी के लिए दो फेंकी हुयी जूठन की रोटियां और किसी की दांव पर लगी पूरी जिंदगी। प्रश्न ये है कि ये हाल कब नहीं रहा और अगर सदा रहा तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? ये स्तिथि कब बदलेगी , बदलेगी भी या नहीं ?
कहानी के लिए बधाई आदरणीय विनय कुमार जी .

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