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वह राज तंत्र था --डा० विजय शंकर

वह एक राजतंत्र था
एक द्रौपदी थी , एक ही ,
वह भी थी उसी कुल की .
पिता तुल्य राजा था वह ,
सचमुच पूरा अंधा था वह .
पितामह भी थे, अंध नहीं
पर अंध स्वामिभक्त थे,
सत्ता नहीं सत्ताधारियों के
प्रति समर्पित, आसक्त थे .
चीर हरण था , वह भी
संकेतात्मक , विफल .
पर ले डूबा कुल वंश ,
अंध स्वामिभक्त बड़े
अधिष्ठाता भी नहीं बचे ,
बड़े कष्ट से मुक्त हुए .
हुए नष्ट पाप के सब सहभागी
सती जस माता रही अभागी .
बचा संग अंधा राजा , रोने
और आंसू बहाने को .
राज गया , पाठ गया
मान गया, सम्मान गया
निंदनीय स्मृतियाँ छोड़ गया .
अपराधी था , वह
राजा था तो क्या हुआ
दंड का पूरा भागी था
वह तंत्र, राजतंत्र था ,
वह राज तंत्र था .

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on July 24, 2014 at 10:43pm
आदरणीय इंजीo गणेश सिंह बागी जी , रचना आपको पसंद आई , अच्छा लगा। बधाई के लिए धन्यवाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 9:53pm

आदरणीय विजय भाई , सुन्दर अभिव्यक्ति के लिये बधाइयाँ ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 24, 2014 at 9:25pm

सच ही तो है, वह राज तंत्र ही था जो इतिहास के पन्नों पर सिमट कर रह गया. एक ऐसा इतिहास जिसमे अपनों ने अपनों का खून बहाया है, भावुकता से सोचो तो कहीं से कहीं तक अधिकारों कि लड़ाई नही कहा जा सकता. हाँ यह कह सकते है कि एक निंदनीय स्म्रतियां छोड़ गया  है. इस रचना पर आपको बहुत -२ बधाई आदरणीय डा.विजय जी


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 24, 2014 at 8:39pm

भावनायें खुल कर प्रेषित हुई हैं, बधाई इस अभिव्यक्ति पर आदरणीय डॉ विजय शंकर जी। 

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