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आदमी से आदमीयत, खो ग है रे कहां ।
आदमी से आदमी को, डर तभी तो है यहां ।।
आदमी में जो पड़ा है, स्वार्थ का साया जहां ।
आदमी अब आदमी से, बच नही पाये यहां ।।

आदमी आतंकवादी, उग्रवादी जो बने ।
आदमी के हाथ दोनो, खून से ही हैं सने ।।
मर्द जो है आदमी में, वो बलत्कारी लगे ।
गोद की बेटी उसे तो, ना दिखे अपने सगे ।।

आदमी को आदमी जो, है बनाना फिर कहीं ।
आदमी में तो जगाओ, आदमीयत फिर वही ।।
आदमी जो आदमी से, प्रेम करने फिर लगे ।
आदमी को आदमी में, सब दिखे अपने सगे ।।
..................................
मौलिक अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2014 at 11:50pm

गीतिका छन्द पर इस प्रयास के लिए बधाइयाँ, भाईजी..

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 19, 2014 at 10:21pm

आदरणीय रमेश भाई , बहुत सुन्दर गीतिका छंद की रचना हुई है ,  सुन्दर संदेश प्रद छंद रचना के लिये बधाइयाँ ॥

Comment by MAHIMA SHREE on June 19, 2014 at 8:00pm

आदमी को आदमी जो, है बनाना फिर कहीं ।
आदमी में तो जगाओ, आदमीयत फिर वही... बहुत अच्छी सोच और संदेश है रमेश जी बहुत-२ बधाई आपको

Comment by रमेश कुमार चौहान on June 18, 2014 at 10:24pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई एवं आदरणीया कुंती दी आप दोनो के उत्साह वर्धन से रचनाकर्म की सार्थक हुआ, सादर साधुवाद

Comment by coontee mukerji on June 18, 2014 at 10:07pm

आदमी से आदमीयत, खो ग है रे कहां ।
आदमी से आदमी को, डर तभी तो है यहां ।।
आदमी में जो पड़ा है, स्वार्थ का साया जहां ।
आदमी अब आदमी से, बच नही पाये यहां ।।...यह संसार जैसे आदमखोरों की बस्ती हो गयी है.अच्छी रचना है...हार्दिक बधाई.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 18, 2014 at 12:19pm

सुंदर सामयिक रचना आदरणीय रमेश जी, हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये

कृपया ध्यान दे...

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