वही रेत
वही घरोंदे
थपथपाते हाथ
सब कुछ वैसा
पर अब लगता
जीवन-सफर
सीलन भरा
शायद इसलिए ...
दिशाओं के पावडों पर
पग रख
समय रथ ने ,
द्रुत गति पकड़ी
और तुम दूर हो गए
पर ये कैसे कहूँ
जबकि हर पल हो पास
मेरी दुआओं में तुम
परछाईयों की तरह
बहुत खुश मैं ,कि
अचानक ...
मेरी पहचान बदलने लगी
कभी मुझसे तुम थे
आज तुम मेरी पहचान बने
यही स्वप्न भी तो था
क्यूँ दूँ उलाहना
इसी दिन के लिये ही तो
कितने देव पूजे थे
पर पलके बंद कर सोचूं
तो लगे यूँ कि
बन बैठी मैं विहगिनी
महसूस हुआ उसका दर्द
तिनका -तिनका जोड़
एक नीड सजाया
बसेरा किया दो चूजों ने
हर आहट पर म
चौंक जाती ,घबरा जाती
तुम्हारा बसेरा इस नीड में जो था
और तुम
निश्चन्त मना हो
कलरव से दिशाओं को बहरा करते
प्रतीक्षा रत अधीर हो
नीड से झाँकते
चंचु खोले अपनी
और मैं...
सुदूर नभ को नाप
अपनी चोंच में दाना दबा लौट आती
और झट से नन्ही सी
दो रक्तिम चंचु में रख देती
पल ,प्रहर ,दिन, मास बीते
और तुम अचानक अपने पँख फडफडा
प्रफुल्लित मना निकले नभ नापने
और मैं ......
तुमको नभ में उड़ता देख
आसमां पर जा बैठी
लेकिन तुम्हारी उड़ान
दूर देश के लिये थी
और मैं .....
प्रतीक्षा रत अनवरत
आओगे तुम
विश्वास अडिग
पर असहनीय है
ये सूनापन
ये सन्नाटा
एक चुप्पी
कहीं ऐसा ना हो
मेरे ये शब्द प्रतिध्वनि बन लौटे
इस "दीप" का स्नेह खत्म हो
तुम आओगे
आशा लिये बैठी हूँ ,
बोलो ना तुम
जल्दी लौट आओगें न
.
दीपिका द्विवेदी "दीप"
मौलिक रचना एवं अप्रकाशित
Comment
दर्द में डूबी, विगत को याद करती इस रचना के लिए हार्दिक बधाई आ0 दीपिका जी
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