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प्रदूषित जीवन

{विश्व पर्यावरण दिवस पर सादर प्रस्तुत ]

एक कहावत है जो हिंदी आधारित लगभग सभी आंचलिक भाषाओँ में प्रचलित है , “ जेई डाढ बैसी ,ओकरे काटी |” , जब विद्योत्तमा से परास्त विद्वानों ने एक महामूर्ख ढूंढने की चेष्टा कियी तो उन्हें सबसे मूर्ख वही लगा था जो उसी डाल को काट रहा था जिसपर बैठा था |कभी सोचा है कि हम सभी प्रदुषण की दृष्टि से कुछ इसी श्रेणी के बनते जा रहे हैं |
यह तो परिपाक है कि हमारा शरीर प्रकृति के पांच तत्वों से निर्मित है – आकाश , हवा, आग, पानी और धरती , जो हमारे पांच ज्ञानेन्द्रियों को संज्ञानता देता है और प्रभावित भी करता है |
सबसे पहले आकाश तत्व के मानव शरीर पर उपकार को देखें तो समझ में आता है कि यह पारदर्शी किन्तु अत्यन्त छोटे कणों से निर्मित है और इन कणों के कम्पन से ही ध्वनि उत्पन्न हुआ और यही हमारे श्रवण शक्ति का संचालक है |इन्हें हमारे ऋषियों ने पिता का संबोधन दिया |
दूसरा तत्व है वायु | सर्वविदित है वायु से ही प्राण उर्जा का संचार होता है |साँस ही आस है अन्यथा शरीर एक लाश है | वायु से हमें स्पर्श की अनुभूति होती है |हवा बहे तो हमारा मन –प्राण प्रसन्न हो जाए |प्रत्येक ऋतुओं के परिवर्तन में हवा अपना मिज़ाज बदलती है और हम इसे सिद्दत से महसूसते भी हैं , कभी ठंढ ,कभी उष्णता ,कभी आद्रता तो कभी वासंती फिजा|यह सब अनुभूति स्पर्श से ही हमें होती है |
तीसरा तत्व है अग्नि | यह हमें दृष्टि प्रदान करता है ,यह न होता तो प्रकाश न होता और फिर देखना एक कल्पना होती ,सबकुछ तमोमय होता |धुप्प अँधेरे में हमारे जीवन की क्या स्थिति होती ,सोंचकर ही भयानुभूती होती है |एक बात और आग की एक विशेषता है कि यह हजार से लाख गुणित प्रतिक्रिया देता है ,कुछ अपने पास नहीं रखता |इससे खिलबाड़ कदापि नहीं करनी चाहिए ,विश्वास न होतो एक सुखा मिर्चा इसके हवाले करके देख लीजिए मगर हम इसके साथ भी खेलने लगे हैं और उसका दुःख भी नित्य नियमित भुगत रहे हैं |सबसे अधिक प्रदुषण उत्सर्जन का यह व्यापक स्रोत बनता जा रहा है |
चौथे तत्व के रूप में हमें प्रकृति ने जल दिया ,यही जीवन है |शरीर में लगभग अस्सी प्रतिशत केवल जल है | इन्हें निकाल लिया जाए तो जीवन का सौन्दर्य देखते बनता है- कंकाल ही शेष बचता है | हाँ जल ही है जो हमें रसास्वादन कराता है | हम बीमार के मुख से ये अवश्य सुनते हैं कि स्वाद बिगड़ गया है ,कुछ खाओ स्वाद ही नहीं लगता ,खाने की इच्छा मरती जा रही है |यह होता है जीभ के शुष्कता के कारण ,शरीर में जल के अभाव के कारण |
पाँचवां तत्व है हमारी धरतीमाता , न होती तो हमारे सूंघने का ज्ञान शून्य होता |सबकुछ गंधहीन लगता , सुगंध ,दुर्गन्ध आदि इन्हीं से उत्पन्न है |घ्राण शक्ति इन्हीं की कृपा से हमें प्राप्त है | इस पृथ्वी माँ का हृदय आकाशामृत से ही सम्बद्ध है ,वैज्ञानिक दृष्टि से इसका मुल्यांकन सहज ही हो जाता है , गुरुत्वाकर्षण ,तथा इसकी गतिशीलता इसके संतुलन का कारण है |तभी तो हमारे ऋषियों ने मार्गदर्शन दिया
“ॐ द्यो शान्तिरन्तरिक्षः शांतिः रोषदयःशान्तिः|वनस्पतयःशान्तिर्विश्वे देवाःशान्तिब्रह्म शान्तिः सर्वः शान्ति शान्तिररेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॐ|“ –यानि जल ,ओषधी , अन्तरिक्ष ,वनस्पति ,प्रकृति ,विश्वदेव तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हमें शांति दें |यहाँ तो शांति की भी शांति केलिए एक देव रूप में स्तुति कियी गयी है |
यज्ञ –याज्ञ ,पूजा ,संस्कार आदि किसी भी शुभकर्म पर किया जानेवाला ‘शांति पाठ’ या ‘स्वस्तिवाचन’ का अंतर्भाव हम स्वेम विस्मृत किये बैठे हैं |हमने धरती ,आकाश ,हवा ,पानी ,आग सबकी रंगत बिगाड़ दियी है |हमारी जीवन पद्धति अप्राकृतिक हो गयी है | हम अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रकृति दोहन के नित्य नये तकनीक विकसित कर रहे हैं और इनकी उत्पादन प्रक्रिया ऐसी है कि उसमें ही प्रकृति का विनाश निहित है |हिमशिलाओं का तीव्रता से पिघलना , समुद्र के जल स्तर का बढना , जिसकी रुद्रता का दर्शन हमें यदाकदा होने लगा है | समुद्र तो हमारे लिए एक नम्बर कचरा का डंपिंगयार्ड और आण्विक-परमाण्विक परीक्षणों का विश्वव्यापी प्रयोगशाला या शोधशाला बना हुआ है ,नतीजतन कई छोटे –छोटे द्वीप जल समाधि लेने वाले हैं ,विश्व में समुद्र के किनारे बसे कई महानगरों को असुरक्षित घोषित कर दिया गया है | हम भूगर्भ के जल का भी दोहन कराचुर कर रहे हैं ,जल-स्तर निरंतर गिरता जा रहा है,इसके संरक्षण की कोई चिंता नहीं |विश्व की लगभग सभी नदियाँ बिषैली हो चुकीं हैं |जिसका कुप्रभाव रोग रूप में सर्वत्र दिखने लगा है | छोटे –छोटे बच्चों का गुर्दा ,ह्रदय और आंत सुख जा रहा है |उसने इस छोटी उम्र में कौन सा कुपथ्य कर लिया भाई ? स्मरण रहे ईश्वर ने सभी को सौ साल की आयु दियी है,उस बच्चे को भी |लीजिए अपनी करनी का नतीजा बाढ़ ,भूकम्प ,आंधी-तूफान , पहाड़ों का दरकना ,बादलों का फटना ,महामारियों का फैलना , नित्य नयी बीमारियों का जन्म लेना |हद हो गया ,केवल बुखार के ही एक हजार से ज्यादा प्रकार हैं और नये-नये बुखार का इजाद हम अपनी कारगुजारियों से रोज करते जा रहे है ,जय हो प्रदुषण महाराज की |ओजोन की पट्टी पतली हुई जा रही है , इस गैस के अभाव में निरंतर वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि होता जा रहा है | और काट-काटकर सत्यानाश करो गाछ-वृक्ष का और सर्वनाश करो अपना |
नए नए यांत्रिक अनुसंधान , प्रयोग ,अविष्कार और जनोपयोगी सामग्रीओं का बाजार उपस्थित होने लगा है , सुख -सुबिधा , आवश्यक -अनावश्यक, नैष्ठिक -अनैष्ठिक वस्तुओं का भरमार सुगमता से उपलब्ध हो गया , सुख ने तप को किनारा कर दिया है | वाह रे आदमी ! क्या तरक्की किया है ? कितनी वैज्ञानिक प्रगति कर चुके हैं हम ! जीवन आधारित बाजार नहीं रहा ,विज्ञापन प्रायोजित सुंदर जंजाल खड़ा हो रहा है | हमारी बस्ती-मोहल्ले में लग रहे ये मोबाइल टावर प्रदूषण का अजस्र श्रोत है और यह बिना माध्यम के रेडिएशन द्वारा अपने दुष्प्रभाव हम सभी जीवों तक पहुंचा रहा है | चिरिया [गोरैया ,मैना ,बुलबुल ,कबूतर ,चील ,गीद्ध ,कौवा आदि ] समाप्त होती जा रही है , अगली पीढ़ी तो ‘कलरव’ शव्द की मात्र कल्पना ही कर सकेगा | जानवर मरते जा रहे हैं और हमारी निर्भीकता तो देखिए कि हम अपने को अमर माने बैठे हैं , खुद को इन सबसे अछूता समझ रहे हैं | धृष्टता नहीं तो और क्या है ?
पृथ्वी मात्र और एकमात्र स्रोत या महास्रोत है ,चाहे जल हो ,अन्न हो ,लकड़ी हो, पेट्रोल -डीजल से गैसोलीन ,एटोमिक फ्युएल हो ,खनिज हो ,अयस्क हो , रसायन हो ,इंधन हो , कोई भी संसाधन हो ,लोहे से सोने तक , स्फटिक से हीरा तक ,नजर डालिए या तो प्रत्यक्ष धरती से प्राप्त करते हैं या फिर परोक्ष रूप से , और कोई सोर्स नही है और समूचा संसार है बेरहम ,बेदर्द ,विचारहीन उपयोक्ता | उपयोक्ता कम ही है ज्यादा तो लुटेरों की तरह भोग करने वाले उपभोक्ता हैं ,जिन्हें सभी संसाधनों को नोंचकर अपने घर में भर लेने की लगी है ,जिन्हें अपनी आने वाली पीढ़ी की भी फ़िक्र नही ,यह भी चिंता नही कि विचारहीन की तरह इस्तेमाल करने से यह सिमित संसाधन अचानक चूक जायेगा | यन्त्र केवल अलग-अलग प्रक्रियाओं से धरती से प्राप्त संसाधनों का परिष्करण करता है और उसका स्वरुप बदलकर सहज उपयोग के अनुरूप बना देता है किन्तु इस क्रम में ये यन्त्र ,उपकरण ,दैत्याकार मशीन बहुत सारे सेकेंडरी प्रोडक्ट ,बाई प्रोडक्ट ,स्लेग्स ,जहरीले गैस आदि का उत्सर्जन ,विसर्जन वायुमंडल में करना शुरू करता है , वृक्षों को हटा यंत्रों ने अपना विस्तार करना प्रारम्भ किया ,आदमी ने वृक्षों को काटना शुरू किया . कह नही सकता कि कितने प्रकार से विघटन करना और क्षति पहुंचाना शुरू किया , कभी एटम का धमाका , कभी न्यूक्लियर टेस्ट ,कभी मिशाइलटेस्ट और इस सबका विध्वंसक प्रभाव अब केवल धरती ही नहीं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड झेल रहा है और प्रकृति का नियम है कि यह आपके आचरण के अनुरूप ही आपको परिणाम देती है . नतीजा हम देख रहे हैं ,जल अशुद्ध , आहार अशुद्ध ,वायु अशुद्ध और मनुष्य रोगों का बण्डल हो गया है ,बाध्य है भोजन की जगह औषधि खाने को , नींद की जगह नींद की गोली खाने को |

हम दिनानुदिन अप्राकृतिक जीवन में आनंद ले रहे हैं और प्रकृति के कोपभाजन बनते जा रहे हैं और अब इसका विकल्प चाह रहे हैं ,हम मन ही मन इस आपा -धापी से ऊब भी रहे हैं ,मुक्ति की चाहना करने लगे हैं ,भयग्रस्त भी हैं | " सबकुछ है ,खा नही सकते ,साधन है लेकिन सुख नही सुहाता " की स्थिति से सुबिधा-सम्पन्न लोग उबने लगे हैं | यह छटपटाहट अब कुछ और खोजने लगा है जो उसे रोगमुक्त ,शोकमुक्त ,कष्ट्मुक्त जीवन पद्धति दे सके |
याद रहे व्यक्ति ही संसार की अंतिम इकाई है अन्यथा परिवार ,समाज ,देश ,संसार की परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती है और इस नाते प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व होता है कि वह इस ईश्वर प्रदत्त मनोरम संसार के संरक्षण के लिए कुछ न कुछ नित्य करे और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करे | संज्ञाशून्य सा आचरण तो हम कर ही रहे हैं , आगे ऐसा न हो कि हमारी संतति हमारे निश्चेष्ट कुकृत्यों का दण्ड भुगते , उनकी अन्य इन्द्रियाँ भी क्षीण हो जाएँ और बच्चे गूंगे ,बहरे ,स्वाद ,रंग,गंध का बोध भी गवाँ बैठें ,उनमें बिक्षिप्तता आने लगे , याददास्त खोने लगे , | ”लम्हे ने खता की और सदियों ने सजा पायी “ - जैसी असाम्य स्थिति से उबरना और उबारना हमारा नैतिक दायित्व और एकनिष्ठ धर्म बनता है |प्रदुषण महाकाल का रूप ले रहा है और हमें हमारी महामुर्खता के प्रति आगाह भी कर रहा है ,शेष हमपर है कि हम इसे किसप्रकार से ग्रहण करते हैं |
वृक्षारोपण ,जल संरक्षण , वातावरण की स्वछता ,आधुनिक संसाधनों का न्यूनतम उपयोग ,प्रकृतिस्थ जीवन –यापन ,शुद्ध तथा शाकयुक्त सदा भोजन आदि तो सरलता से जीवन में लाया जा सकता है | टीवी – कमप्यूटर ,इंटरनेट का, मोबाइल आदि का कम से कम प्रयोग करें,ये घंटों इनके साथ बैठने की चीजें नहीं हैं | सवेरे उठिए , थोड़ा टहलिए , व्यायाम-प्राणायाम भी करिए ,क्रोधित होने से बचिए | प्रकृति है .... सुधरिये नहीं तो सुधार देगी |

विजय मिश्र
(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by vijay nikore on June 10, 2014 at 5:16am

हम सभी सोचें कि अपने निजि स्तर पर हम क्या कर सकते हैं। कोई भी दिन ऐसा न जाए कि जब हम इस दिशा में सार्थक सोच न कर पाएँ, या पर्यावरण के लिए कोई विशेष कदम न उठाएँ। क्या कर सकते हैं ?.. यह हमें अपने दैनिक

अनुभवों में देखना होगा, कि कब, कहाँ, कौन से परिवर्तन ला सकते हैं।

पर्यावरण पर आपका बहुत ही सार्थक आलेख अच्छा लगा। हार्दिक बधाई।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 9, 2014 at 6:48pm

तथ्य जितना गहन है, कथ्य उतना ही सरस. संप्रेषण अत्यंत प्रवहमान.
आदरणीय विजयजी, आपने विन्दुओं को सार्थक ढंग से प्रस्तुत किया है.

हर सदस्य-पाठक के लिए अवश्य पठनीय इस प्रस्तुति हेतु सादर आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 8, 2014 at 2:18pm

आ० विजय मिश्र जी 

पञ्च तत्वों से ही ये प्रकृति निर्मित है और इन्ही से ये मनुष्य...इनका सामंजस्य और संतुलन हर स्तर पर बेहद महत्वपूर्ण है.... आधुनिक जीवनशैली में जिस तरह हमने स्वयं को प्रकृति से न केवल अलग, अपितु उसका शासक ही मान लिया है और हर संसाधन का अन्धाधुन्ध दोहन करते जा रहे हैं..बिना इस नाज़ुक पारिस्थितिकीय संतुलन के बारे में सोचे...ये सचमे हमें उसी कगार पर ले पहुंचे हैं कि हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटते जा रहे हैं....

आपने बहुत ही सार्थक आलेख प्रस्तुत किया है. हृदय तल से बधाई प्रेषित है .

टंकण त्रुटियाँ कई जगह रह गयी हैं..एक बार पुनः पूरे आलेख को देख जाएं और उन्हें अवश्य ही सुधार लें.

Comment by विजय मिश्र on June 7, 2014 at 6:26pm
मेरा लिखना अर्थ ढूंड लिया ,राजेशजी इस अनुशंसा केलिए आदर और आभार |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 7, 2014 at 6:15pm

पर्यावरण पर बहुत ही ज्ञान वर्धक लेख लिखा आपने ऐसे आलेखों की आज बहुत जरूरत है  बहुत -बहुत बधाई आपको. 

Comment by विजय मिश्र on June 7, 2014 at 3:12pm
आशुतोषजी ! प्रदूषण की व्यापकता ने आपके जीवन को भी इस लेख के माध्यम से व्यापा |मेरी संतुष्टि के लिए प्रयाप्त है |विस्तृत निबंध पढ़ने का धैर्य आज लोगों में न के बराबर बचा है मगर मेरी अपेक्षा सभी धैर्यवान मित्रों से है कि इसे पढ़ें और अपने -अपने शब्दों में इस शांतभाव से अपनी ओर बढ़ रहे कोलाहल पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करें|यही इसकी सार्थकता होगी |आभार भाई |
Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 7, 2014 at 1:28pm

आदरणीय विजय जी ...जागरूक करने वाला , आँखे खोलकर सचेत करने वाला शानदार लेख ..आपने इतनी ज्ञानवर्धक जानकारी हमारे साथ साझा की इसके लिए मेरी तरफ से हार्दिक बधाई सादर 

Comment by विजय मिश्र on June 7, 2014 at 11:33am
शिज्जू भाई ! यह निश्चित रूप से ' अपने ही पाँव में कुल्हाड़ी मारने ' जैसा है |यही बताने की चेष्टा कियी है |पर्यावरण हम सबका दायित्व है |लेख ने आपको प्रभावित किया , लिखना सार्थक हुआ |आभार |
Comment by विजय मिश्र on June 7, 2014 at 11:28am
जीतजी , सचमुच व्यथित करता है आजका आदमी जब उसे प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ता हूँ |इसलिए मैंने इस खिलवाड़ का सीधा प्रभाव एक व्यक्ति के लाकर समझाने की चेष्टा कियी |स्नेह दिया ,पढ़ने का कष्ट लिया |आभार जितेन्द्रजी |
Comment by विजय मिश्र on June 7, 2014 at 11:22am
श्रध्येया कुंतीजी , लेख ने आपका ध्यान आकृष्ट किया और आपने इसे 'ज्ञानवर्धक' की संज्ञा दियी|कृतज्ञ हूँ , आभार |

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