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जेठ की तपती दुपहरी!

जेठ की तपती दुपहरी!

जेठ की तपती दुपहरी, लगे नीरव शांत।
धूप झुलसा रही काया, स्वेद से मन क्लांत।।
शाख पर पक्षी विकल है, गेह में मनु जात।
सूर्य अम्बर आग उगले, जीव व्याकुल गात।१।

जल भरी ठंडी सुराही, पान कर मन तुष्ट।
दूध माखन और मठठा, तन करे है पुष्ट।।
पना अमरस संग चटनी, भा रहे पकवान।
कर्ण को मधुरिम लगे फिर, आज कोयल गान।२।

गूँजता अमराइयों में, बिरह पपिहा राग।
गाँठकर छाया दुपहरी, पढ़ रही निज भाग।।
कृष हुई सरिता निराली, सूख मंथर चाल।
फूल गुलमोहर खिले हैं, आज देखो लाल।३।

शयन गृह वातानुकूलित, पेय शीतल मांग।
मन ललचता देख कुल्फी, ठण्डई औ भांग।।
ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियों में, सुरमई हो शाम।
घूमकर शिमला मनाली, कर रहे विश्राम।४।

मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2014 at 8:43am

प्रतिक्रिया-छन्द के लिए सादर धन्यवाद आदरणीय

Comment by Satyanarayan Singh on June 1, 2014 at 1:23pm

परम आदरणीय सौरभ जी सादर 

 

जेठ की तपती दुपहरी, से हुआ मन क्लांत  

आपका सम्यक विवेचन, कर गया मन शांत  

लग रहे अनमोल सारे, शब्द स्वाति बूँद

तृप्त मेरा मन हुआ पढ़, नैन सोचें मूँद

शब्द संयोजन सधे ना, तब लगे पद हेय

धूप में काया झुलसती, लग रहा अब गेय

आपकी ही दाद से है, लेखनी आबाद

स्नेह औ आशीष खातिर, सादर धन्यवाद......... 

  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 1, 2014 at 1:19am

रूपमाला छन्द सुन्दर, ग्रीष्म ऋतु की बात
सत्यनारायण खुले तो, खिल उठे जजबात
दूसरा पद किन्तु मुझको, लग रहा बेजान  
’धूप में काया झुलसती’, यों करें श्रीमान  

उपरोक्त दूसरे पद के विषम चरण के अलावे बहुत ही सधा छन्द हुआ है, आदरणीय सत्यनारायणजी. यह चरण भी शब्द-संयोजन के सधे न होने के कारण अव्यवस्थित मात्र है.
अन्य, इस सार्थक प्रयास के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय
 

Comment by Satyanarayan Singh on May 27, 2014 at 9:48pm

आ. विजय निकोरे जी सादर 

        

       रचना आपको दूसरी बार और भी अच्छी लगी है यह जानकर ख़ुशी हुई मेरा मानना है की आपके इस प्रतिक्रिया से लेखनी को बल मिला है. तथा मेरा लिखना सार्थक हुआ ऐसा मेरा मानना है. सादर धन्यवाद.आदरणीय 

Comment by Satyanarayan Singh on May 27, 2014 at 9:45pm

आ. गिरिराज जी सादर 

   रचना सराहने एवं बधाई हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ. आदरणीय 

Comment by vijay nikore on May 27, 2014 at 10:45am

आपकी यह रचना पहले भी पढ़ी थी, अच्छी लगी थी, अब दूसरी बार और भी अच्छी लगी है। बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 26, 2014 at 12:34pm

आदरणीय सत्यनारायण भाई , सुन्दर छंद रचना के लिये बधाइयाँ । ग्रीष्म का कोई भी हिस्सा अछूता नही है । पुनः बधाई ।

Comment by Satyanarayan Singh on May 23, 2014 at 4:56pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय सुरेन्द्र कुमार जी 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 23, 2014 at 12:43pm

जल भरी ठंडी सुराही, पान कर मन तुष्ट। 
दूध माखन और मठठा, तन करे है पुष्ट।।
पना अमरस संग चटनी, भा रहे पकवान।

सुन्दर रचना जेठ की दुपहरी के वे पल याद आ गए जब हम इसको झेलते विद्यालय आते जाते नदी का गर्म बालू लू चेहरे पर गर्म हवाएँ रंग ही बदल देतीं थीं
भ्रमर ५

Comment by Satyanarayan Singh on May 23, 2014 at 11:44am

रचना सराहने एवं बधाई हेतु सादर आभार आदरणीय धामी जी 

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