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तरही ग़ज़ल... क्यों लगे शह्र जैसे खजाना हुआ -- "राज “

212    212    212    212

गाँव से दूर जब से ठिकाना हुआ

बंदिशे काम उसका बहाना हुआ

 

आस में मुन्तज़िर आँखें दर पे टिकी

उसकी सूरत  को देखे ज़माना हुआ

 

गोद में खेल जिसकी पला था कभी

गाँव वो आज कैसे बेगाना  हुआ

 

जानते हैं सभी कबसे बदली नजर

जब से गैरों के घर आना जाना हुआ

 

जो झुलाता तुझे प्यार से डाल पर

वो शज़र देख कितना पुराना हुआ

 

गाँव में क्या नहीं था तेरे वास्ते

क्यों लगे शह्र जैसे खजाना हुआ

 

जल गया है तेरे गाँव का नीड़ वो

बस इसी खब्र से ही बुलाना हुआ

 

सोच तुझको मिला क्या यहाँ से निकल

बस सुकूने दिलों का  मिटाना हुआ

******************************

 मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:47pm

आ० सौरभ पाण्डेय जी, आपकी  उत्साहित करती प्रतिक्रिया  से ग़ज़ल धन्य हुई लिखना सार्थक हुआ ,तहे दिल से आभार आपका. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:45pm

जितेन्द्र गीत जी ग़ज़ल पर उत्साह वर्धन करती हुई प्रतिक्रिया से हर्षित हूँ तहे दिल से आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:44pm

लक्ष्मण धामी जी तहे दिल से आभारी हूँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:43pm

आ० डॉ.आशुतोष जी, ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर प्रसन्न हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई ,तहे दिल से आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:41pm

प्रिय वंदना जी बहुत- बहुत शुक्रिया. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:40pm

ब्रजेश जी आपकी सुकून देती हुई प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2014 at 7:39pm

आ० अन्नापूर्णा जी तहे दिल से आभार आपका.  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 4, 2014 at 4:45am

इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया..

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 2, 2014 at 8:54am

बेहतरीन गजल आदरणीया राजेश जी, यह शेर खास पसंद आये

गाँव में क्या नहीं था तेरे वास्ते

क्यों लगे शह्र जैसे खजाना हुआ

 

जल गया है तेरे गाँव का नीड़ वो

बस इसी खब्र से ही बुलाना हुआ

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2014 at 7:28am

आदरणीया राजेश जी बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल हुई है ...एक एक शेर काबिले तारीफ़ !

जो झुलाता तुझे प्यार से डाल पर

वो शज़र देख कितना पुराना हुआ...! बचपन की याद दिला दी आपने !

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