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आत्मकथन

जब जब बनाना चाहा
शब्दों को मिसरी
कुछ पूर्वाग्रह
घोल गये कड़ुवाहट
नहीं बना पाया मैं
खुद को मधुमक्खी
तब कैसे होते मधु
मेरे कहे गये शब्द
मैंने चाहा दिखना
बगुले सा धवल
तब कहां से आती
कोयल सी मधुरता
काक होकर भी
कहां निभा पाया
काक का धर्म
बस जमाये रखी
गिद्ध दृष्टि  
हर जीवित-मृत पर
समझ सकते हैं आप
कितना तुच्छ जीव
बनकर रह गया हूं मैं

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 21, 2014 at 7:17am

आदरणीय भाई  गिरिराज जी आत्मकथन की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 21, 2014 at 7:13am

आदरणीय coontee बहन मेरे प्रयास की प्रशंसा के लिए धन्यवाद.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 21, 2014 at 7:11am

आदरणीय मोहिनी बहन मेरे प्रयास की प्रशंसा के लिए धन्यवाद.आप सभी का मार्गदर्शन मिलता रहे यही कामना है.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 21, 2014 at 7:06am

आदरणीय भाई अखिलेश जी आत्मकथन की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2014 at 9:58pm

आदरनीय लक्ष्मण भाई , बहुत सुन्दर आत्म चिंतन के लिये बहुत बधाइयाँ ॥

Comment by coontee mukerji on January 20, 2014 at 3:19pm

सुंदर अभिव्यक्ति

Comment by mohinichordia on January 20, 2014 at 10:23am

आत्मकथ, आत्ममंथन  ही  सबसे कठिन है और वो लिखने की आपकी कोशिश अच्छी लगी |

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 20, 2014 at 9:36am

आदरणीय , इस सुंदर आत्मकथन पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें ॥ 

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