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मेरे खोये हुये लम्हात के ग़म को,

हकीकत के सीने में दफ़्न,

कुछ इच्छाओं की

उन धुँधली यादों को,

मेरे सपनों की लाशों को,

अब तक ढो रहा हूँ मैं…

 

कई दफे

ज़िन्दगी करीब से गुज़री,

मगर,

मैं ही जी न पाया..

आज मुझे लगता है

मैंने बहुत कुछ खो दिया,

पहले जो खोया है..

उसे याद कर,

और फिर,

उन्हीं यादों में खोकर,

 

एक लम्बा सफर तय किया,

मगर,

आज मुझे लगा

कि मैं वहीं हूँ!

वहीं हूँ जहाँ से चला था……

 

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 4, 2014 at 7:25pm

आदरणीय श्याम नारायण जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 4, 2014 at 7:23pm

आदरणीय विजिश जी रचना की सराहना के लिये आपका आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 4, 2014 at 7:22pm

आदरणीय नीरज नीर जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 4, 2014 at 6:04pm

भाई शिज्जु जी बेहद सुन्दर रचना बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by sujeet kumar jalaj on January 4, 2014 at 11:52am

कई दफे

ज़िन्दगी करीब से गुज़री,

मगर,

मैं ही जी न पाया.     सबसे बेहतरीन पंक्ति । बधाई…

Comment by vandana on January 4, 2014 at 5:27am

सच कहा आदरणीय शिज्जू जी बहुत बार आदमी यह महसूस करता है कि इतनी भागदौड़ की और प्रगति नाममात्र को भी नहीं हुई लेकिन कुछ देर रुक कर फिर उसी भागदौड़ में लग जाता है 

Comment by Neeraj Nishchal on January 3, 2014 at 11:24pm

मेरे एक पडोसी हैं दो शादी की हैं उन्होंने एक रोज मुझे कहने लगे शादी का लड्डू जो खाये वो पछताए जो न खाये वो भी पछताए
मैंने कहा वो तो ठीक है पर ये क्या दो बार खाकर दो बार पछताने वाली कौन सी बात हुयी एक बार खा लिए पछता लिए बहुत हुआ
आदमी तो रोज रोज वही गलतियां करता है नयी गलतियां करे तो भी ठीक
जीवन एक पाठशाला है यहाँ भी हम एक कक्षा में उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में प्रवेश पाते हैं प्रौढ़ होते हैं आगे बढ़ते हैं
पर आदमी है एक ही कक्षा को बार बार ढोये जा रहा है वो रोज रोज वही काम करता है
और फिर कहता है आज भी वही पर हूँ तो किसकी कृपा से अपनी ही कृपा से
जब भीतर की समझ गहरी हो जाती है तो आदमी आगे बढ़ता है और और शांत होता जाता है सुलझता जाता है
और आनंदित होता जाता है सारे द्वन्द समाप्त सारे उलझाव ख़तम हुए सारे झगडे फसाद ख़तम हुए समझ लिया पूरी तरह जीवन को
तो पहुंचे आप मंज़िल पर ,
सादर आदरणीय शिज्जू भाई ।

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 3, 2014 at 9:32pm

आदरणीय शिज्जू भाई , रचना पर मेरी हार्दिक बधाई ॥

Comment by ajay sharma on January 3, 2014 at 9:26pm

bahut hi sanzeeda ahsasaat hai .......

Comment by Neeraj Nishchal on January 3, 2014 at 8:56pm

मैंने सुना है चार मित्रों ने एक रात खूब शराब पी और रात में मौज़ मस्ती के
लिए सोचा क्यों ना नौका बिहार किया जाए फिर सभी पहुँच गए नौका बिहार को
सभी ने एक एक नाव ली और रात भर नाव चलायी सुबह जब उषा की पहली किरण के साथ
हवा के ठन्डे झोंको ने उन्हें छुआ तो वो ज़रा होश में आये और सोचा रात भर नाव चलायी है
और काफी दूर पहुँच गए होंगे पर उन्होंने देखा वो तो कहीं नही पहुँचे उन्होंने जहाँ से शुरू किया था
वो तो वही पर हैं वो अपनी नाव किनारे बंधी रस्सी से छुड़ाना ही भूल गए थे वो बेहोश थे
और हर आदमी बेहोश है आज अगर हर बुज़ुर्ग से पूछो तो वो अपने अतीत में ही खोया है
वो कहता है मै नाव घुमाता रहा हूँ जीवन में बहुत भाग दौड़ कि है बड़े संघर्ष किये हैं पर वो जानता
है वो कहीं पहुंचा नही है आदरणीय वीनस जी लिखते हैं

ज़िंदगी से खेलने वालों जरा यह कीजिए
ढूढिए ऐसा कोई जो आखिरश हारा न हो

इंसान कि तो हालत ये है कि वो एक गोले में चल रहा है और कोई कहे कि आप कहीं पहुंचोगे नही तो वो जल्दी
जल्दी चलने लगे कि अब पहुंचूंगा कोई कहे नही आप फिर भी कहीं नही पहुंचोगे तो वो दौड़ने लगे कि देखो अब तो
पहुंचूंगा पर वो पागल है वो तो एक चक्र में यात्रा कर रहा है आप अगर अपना विश्लेषण करें तो आप समझ पाएंगे
रोज रोज वही सुख वही दुःख ज़िन्दगी में नया क्या है

बहार हाल कविता बहुत खूबसूरत है और बहुत बहुत बधाई प्रेषित है ।

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