एक थैली बूंदी...
- शमशाद इलाही अंसारी "शम्स"
पता नहीं मुझे आज
एक थैली बूंदी की याद
इतनी क्यों आ रही है..?
आज के दिन..
जब स्कूल में
बंटा करती थी..
तमाम उबाऊ क्रिया कलापों
और न्यूनतम स्तर के
पाखण्डों के बाद
बस प्रतीक्षा रहती थी
कब मिलेंगी
वो, गर्म गर्म बूंदियों की
रस भरी थैलियां
जो, न जाने कब और कैसे
जुड़ गयी थी
गणतंत्र दिवस से.
उन्हें लेकर मैं घर तक जाता
हर वर्ष, खुशी खुशी.
लेकिन..
जब से मैं व्यस्क हुआ हूँ
न मुझे उस थैली का इंतज़ार रहता
और, न रहता किसी के
कथित
गणतंत्र का.
शायद, आरोपित पर्व
वह कच्चे धब्बे मात्र हैं
जिन्हें, बरसात की
पहली ब्यार
धोकर, दिखा देती है
नाली का रास्ता.
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Comment
Naveen Ji, main aapka dhyan akrasht kar sak, yahi badi baat hai...
Saadar.
Bhai Virendra ji... aapki tawajjo mili iske liye behud shukr gujar hun..prem banai rakhiyegga..
saadar
Kesari Ji...aapko kavita pasand aayi, iske liye main shukrgujar hun..
Sadar
शायद, आरोपित पर्व,,,...
इस पंक्ति ने आपकी कविता के भाव को व्यग्तिगत से कहीं ऊपर उठा दिया
कविता का अंत खास पसंद आया
शम्स साहब , बहुत दिनों बाद OBO पर आपकी वापसी सुखद है , कविता मे शुरू मे कहे गये तथ्य अच्छे लगे , मुझे भी यह इन्तजार रहता था कि कब प्रधानाचार्य का अंतिम भाषण ख़त्म हो और मिठाई खाकर स्कूल के मैदान मे ही गुल्ली डंडा खेले, गुल्ली डंडा स्कूल मे ही छुपा कर रखा जाता था |
किन्तु कविता कि अंतिम कुछ लाइनों का भाव बहुत प्रयत्न पर भी सर के ऊपर से गुल्ली कि भाति ही निकल गया | गणतंत्र दिवस कि बधाई आपको |
Abhinav ji...aapka abhivadan karta hun...Kutch yaad dilaney mein kaamyaabi to mili..!!!
Sadar
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