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माँ – बाप (क्षणिकाएँ )

(1)

हमारे सपने लेते रहे आकार

बड़े और बड़े

महानगर की इमारतों की तरह

भव्य और विशाल

हमारे सपने

बढ़ते रहे

आगे और आगे..

कभी खुद से

कभी दूसरों से

आगे बढ़ जाने की चाह में 

माँ – बाप की ज़रूरतें

छोटी होती गईं 

टूट चुके गाँव के मकान के बाद 

दो वक्त की रोटी में सिमट गईं।

 

(2)

 

वे कभी नहीं आए

हमारे सपनों के बीच

मगर जुड़े रहे हमसे

अपनी दुआओं के साथ ।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by नादिर ख़ान on December 28, 2013 at 1:22am
सच बात है, आदरणीया प्राची जी ओ बी ओ में बहुत कुछ सीखने को मिलता है।यहाँ बड़ी आत्मीयता से लोग समझाते भी है और हाथ पकड़कर कलम चलाना सिखा देते हैं..सच कहें तो इस मंच में आकर कई सालों बाद हमने दोबारा लिखना शुरू किया है बल्कि सीखना शुरू किया है, इसके लिए ओ बी ओ प्रबंधन की पूरी टीम का शुक्रिया तथा इस मंच से जुड़े तमाम दोस्तों एवं गुणीजनों का आभार ....

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 27, 2013 at 11:18am

आदरणीय नादिर जी 

बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी कथ्य है दोनों क्षणिकाओं का...

आ० सौरभ जी के इंगितानुरूप आपने प्रथम रचना को बहुत सुन्दर तरह से अलग क्षणिकाओं में प्रस्तुत किया..और पुनः सौरभ जी नें ज़रा सा आकार बदला और बस अब भाव और प्रस्तुति बहुत सुगढ़ता से उभर कर आ रही है..अन्यथा पहली वाली अभिव्यक्ति को क्षणिका के स्थान पर एक अतुकांत काव्य ही कहा जाता...

मंच पर उपलब्ध इस अवसर का भरपूर लाभ उठा प्रस्तुत अभिव्यति को सुगढ़ कर लेने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 27, 2013 at 1:07am

हार्दिक धन्यवाद, भाई जी.. हम सभी समवेत ही तो सीख रहे हैं .. .

Comment by नादिर ख़ान on December 27, 2013 at 12:52am

अदरणीय सौरभ जी आपने कविता मे चार चाँद लगा दिये। इस तरह तो हमने सोंचा ही नहीं था, इसीलिये तो आप लोग बुलंदियों मे हैं ।

Comment by नादिर ख़ान on December 27, 2013 at 12:48am

आदरणीय,

गिरिराज जी,अरुण शर्मा जी जितेंद्र गीत जी आशीष नैथानी जी, लक्ष्मण प्रसाद जी एवं 

आदरणीया,

मीना जी, सविता जी ,अन्नपूर्णा जी 

आप सबने प्रयास को सराहा, आप सभी का दिल की गहराईयों से शुक्रिया ।

आभार .........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 27, 2013 at 12:47am

नादिर भाई, आपकी संलग्नता और आपकी कोशिशें वाकई मुग्ध कर देती हैं. मैं अपनी समझ भर आपकी पंक्तियों को एक रूप देने का प्रयास कर रहा हूँ. बताइयेगा ये क़वायद कैसी रही.

१.
सपने लेते रहे आकार
महानगर की इमारतों की तरह
बड़े और बड़े / भव्य और विशाल
सपने बढ़ते रहे
आगे.. से आगे
हमारी ज़रूरतें
पैर फैलाने लगीं

२.
माँ–बाप की ज़रूरतें
होती गईं छोटी.. और छोटी
गाँव के अधटूटे मकान में
महज़ दो वक्त की रोटी तक सिमट गईं ।

Comment by नादिर ख़ान on December 27, 2013 at 12:38am

आदरणीय सौरभ जी आपका बहुत आभार मुझे हमेशा ही आपके कोमेंट्स का इंतज़ार रहता है । आपने सही कहा पहले ये कविता इस रूप मे थी जिसे हमने पोस्ट करते समय कुछ शब्द जोड़ दिये जिसका मुझे भी बाद मे अफ़सोस रहा ।कृपया इन पंक्तियों को पढ़ कर कुछ सलाह दें ।

हमारे सपने लेते रहे आकार

बड़े और बड़े

महानगर की इमारतों की तरह

भव्य और विशाल

सपने बढ़ते रहे

आगे....

और आगे

हमारी ज़रूरतें

पैर फैलाने लगीं ....

 

माँ – बाप की ज़रूरतें

होती गईं छोटी

और छोटी 

टूट चुके गाँव के मकान के बाद 

दो वक्त की रोटी में सिमट गईं।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 26, 2013 at 11:27pm

भाई नादिर साहब, दोनों क्षणिकओं में ज़बर्दस्त की ऊँचाई है.

मैं इसलिये नहीं कह रहा हूँ कि माँ-बाप आदि कर देने से पाठक की भावुकता को एनकैश किया जाना आजकल फ़ैशन हो गया है. बल्कि इस लिये कि आपके बिम्ब और आपकी कहन ने वाकई कमाल किया है.
यह अवश्य है कि पहले वाली प्रस्तुति में दो भाव हैं और दोनों डिस्टिंक्ट हैं. उन्हे दो बंद के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था.
बहुत-बहुत बधाई इस प्रस्तुति के लिए ..
सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 24, 2013 at 10:24am

प्रभावी भाव पगी रचना के लिए हार्दिक  बधाई भाई नादिर खान जी 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 23, 2013 at 11:17pm

आगे बढ़ जाने की चाह में
माँ – बाप की ज़रूरतें
छोटी होती गईं
टूट चुके गाँव के मकान के बाद
दो वक्त की रोटी में सिमट गईं।

सुन्दर अभिव्यक्ति आदरणीय नादिर जी !

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