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अतुकांत कविता - नि:शब्द (गणेश जी बागी)

शब्द कोष से संकलित
क्लिष्ट शब्दों का समुच्चय
गद्यनुमा खण्डित पक्तियों में
शब्द संयोजन
कथ्य और प्रयोजन से कोसों दूर

लक्ष्यहीन तीरों के मानिंद
बिम्ब और प्रतीक
कही तो जा धसेंगे
बस
वही होगा लक्ष्य
फिर.......
पाठक का द्वन्द्ध
बार-बार पढ़ना
पग-पग पर अटकना
समझने का प्रयत्न
गुणा भाग, जोड़ घटाव
सुडोकू सुलझाने का प्रयास
और अंततः
एक प्रतिक्रिया
नि:शब्द हूँ ।

***

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट =>लघुकथा : छवि

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 12, 2015 at 12:51am

आदरणीय बागी सर, आज आपकी रचनाएँ पढ़ रहा था तो अचानक इस रचना पर आ गया.. इस बेहतरीन कविता के लिए हार्दिक बधाई

आपकी कविता के मूल भाव को अभिव्यक्त करती एक कविता मैंने भी लिखी थी दिसंबर 2014 में जब मैं ओ बी ओ पर नया नया सक्रीय हुआ था. लेकिन फिर मैंने वो कविता पोस्ट नहीं की बल्कि अतुकांत कविता के रचना-विधान को समझने का प्रयास करने लगा और फिर पूरा दिसम्बर और जनवरी अतुकांत कवितायेँ पढ़ता रहा फिर अपनी पहली अतुकांत कविता  बोलो पंछी  पोस्ट की. वास्तव में इससे पहले जो कविता लिखी थी वो पोस्ट नहीं की क्योकिं वह कविता पूर्णतः मेरे पूर्वाग्रह से दूषित थी. आज अपनी उस नादानी पर हंसी भी आ रही है और वाकई अच्छा किया कि तब पोस्ट नहीं की क्योकि उस विषय पर आपकी संतुलित और सधी हुई रचना की भद्दी नक़ल लगती. आज अपनी गलती की स्वीकारोक्ति के साथ उसे आपकी कविता के हवाले से टिप्पणी में पोस्ट कर रहा हूँ -

आओ करे मिलकर कोई कविता बड़ी

कितनी बड़ी?  

इतनी बड़ी, इतनी कि वो

मस्तिष्क गृह के द्वार पर बस हो खड़ी

जो जा सके भीतर न जैसे हो अड़ी

आओ करे मिलकर कोई कविता बड़ी

 

आओ चलो कुछ शब्दकोशों को उठाये

अप्रचलित क्लिष्ट शब्दों की बड़ी सूची बनाए

बरसो से सजी, उस धूल वाली रेक से पुस्तक निकाले

फिर छांट ले- ऐसे नगर, ऐसी प्रथायें

कुछ लोग ऐसे, चीज ऐसी, जो कोई न जानता हो

जो बिना इक टिप्पणी के

किसी के बाप को भी ना समझ आये ये जरूरी

चलो इनको मिलाएं,

और सीधी बात को भी क्लिष्ट कर दे

कान में इक ज्ञान का अवशिष्ट भर दे

 

आओ चलो अब इक गज़ब की लीक बनाएं

इन शब्दों से कुछ बिम्ब, कुछ प्रतीक बनाएं

समवेत स्वरों में मजबूरी कि ठीक बनाएं

चाहे प्रतीक जैसे हो

चाहे कि बिम्ब जैसे हो

पर हो ऐसे, जो उच्चारण में इस जिह्वा को झंकृत कर दे

हाटक से पाठक तक सबको अनुपम और चमत्कृत कर दे

ये आम आदमी के हिस्से में कहाँ पड़ी है

मौन रहो निकृष्ट कि ये कविता बड़ी है.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 23, 2013 at 4:19pm

निशब्द होने हेतु आभार वीनस भाई जी :-)


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 23, 2013 at 4:18pm

सराहना हेतु आभार आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, स्नेह बना रहे |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 23, 2013 at 4:10pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, इस कविता पर आपकी उपस्थिति और खुले ह्रदय से उदगार व्यक्त करना दोनों भाव विभोर कर गया, बहुत बहुत आभार |

Comment by वीनस केसरी on December 11, 2013 at 1:24am

अभी इस पोस्ट पर हुयी शानदार चर्चा को पढ़ गया .. सौरभ जी ने जिस तथ्य को प्रस्तुत किया वहां से ब्रिजेश जी तक आते आते चर्चा ने कई कई आयाम को छू लिये ... ओबीओ पर ऐसे शानदार चर्चा पढ़ कर दिल खुश हो गया .... किसी पोस्ट पर कम ही ऐसा होता है
यही इस रचना की सार्थकता है
मगर आदरनीया गीतिका वेदिका जी के कमेन्ट ने घोर निराश किया

Comment by वीनस केसरी on December 11, 2013 at 12:57am

नि:शब्द हूँ ।
हा हा हा

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 7, 2013 at 3:14pm

निःशब्द की बधाई गणेश भाई । कड़वी सच्चाई बयाँ करती इस रचना ने कड़वी दवा का घूँट पिला दिया ... खैर, जिन्हें रोग है या संभावना उनको फायदा भी तो करेगा। पुनः हार्दिक बधाई॥  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 7, 2013 at 12:28pm

प्रिय बृजेश भाई जी, रचना पर आपकी उपस्थिति और आपके विचारो का स्वागत है, बहुत बहुत आभार । 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 7, 2013 at 12:24pm

आदरणीया मीना पाठक जी आखिर आप भी निशब्द हो ही गयीं :-)))) सादर आभार । 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 7, 2013 at 12:23pm

धन्यवाद प्रिय संदीप पटेल जी । 

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