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मैं एकलव्य नहीं (लघुकथा)

परीक्षाएं निकट थीं लेकिन टीचर पिछले कई दिनों से क्लास से गायब थे. पढ़ाई का बहुत हर्जा हो रहा था जिसे देखकर उसे बेहद गुस्सा आता. रह रह कर उसके सामने अपनी विधवा बीमार माँ का चेहरा घूम जाता, जो लोगों के घरों में झाड़ू पोछा कर उसे पढ़ा रही थी. आखिर उस से रहा न गया और वह शिकायत लेकर प्रधानाचार्य के पास जा पहुंचा।

 “उस कक्षा में और भी तो विद्यार्थी है, सिर्फ तुम्हें ही शिकायत क्यों है।”
“क्योंकि मैं एकलव्य नहीं हूँ सर।”

(मौलिक और अप्रकाशित)    

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 3, 2013 at 11:16pm
हाँ ये बात तो है आज भी हिन्दुस्तान में कई स्कूल ऐसे हैं जहाँ एकलव्य़ बनें बिना कोई छात्र आगे नही बढ़ सकता लेकिन दुर्भाग्य है कि आज के ज़माने में द्रोणाचार्य नही मिलते जिन्हे देखकर कुछ सीखा जाये। इस कामयाब लघुकथा के लिये बधाई
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2013 at 5:54pm

रवी प्रभाकर जी

बहुरत अच्छी अगहु कथा i

बिलकुल सरसैया के दोहरे i

मेरी बधाई स्वीकार करे i


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 3, 2013 at 4:49pm

बहुत सुन्दर और सधी हुई लघुकथा कही है रवि भाई, लघुकथा आधुनिक एकलव्य के बिम्ब से पूर्णतय: न्याय कर रही है. एकलव्य के बगावती तेवर लघुकथा को एक नयापन देते हैं. शिल्प कसा हुआ और कहने का ढंग प्रभावशाली है. इस सफल प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।     

Comment by coontee mukerji on December 3, 2013 at 4:21pm

श्रीमान! इस कथा का उद्देश्य सटीक नहीं बैठ रहा.अन्यथा न लेकर आप पुनः इसपर विचार कीजिये.

सादर

कुंती.

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